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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(ग्रहि०भृज्जतीनाम्) ग्रहि, ज्या, वयि, व्यधि, वष्टि, विचति, वृश्चति, पृच्छति, भृज्जति (धातोः) धातुओं को (डिति) डित् (च) और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में देख लेवें।
सिद्धि-(१) गृहीतः । यहां ग्रह उपदाने (क्रयाउ०) धातु से क्त प्रत्यय है। प्रत्यय के कित् होने से इस सूत्र से 'ग्रह' के रेफ को ऋकार सम्प्रसारण होता है। ग्रहोलिटि दीर्घः' (७/२/३७) से इट् आगम को दीर्घ होता है।
(२) गृहीतवान् । यहां पूर्वोक्त ग्रह' धातु से क्तवतु प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) गृह्णाति । यहां पूर्वोक्त ग्रह' धातु से लट् प्रत्यय और क्रयादिभ्यः श्ना' (३।१।८१) से श्ना विकरण प्रत्यय है। 'सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से श्ना प्रत्यय के डित होने से इस सूत्र से ग्रह धातु को पूर्ववत् सम्प्रसारण होता है।
(४) जरीगृह्यते। यहां पूर्वोक्त ग्रह' धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३।१।२२) से यङ् प्रत्यय है। प्रत्यय के ङित् होने 'ग्रह' धातु को इस इस सूत्र से सम्प्रसारण होता है। रीगदुपधस्य च' (७/४।९०) से अभ्यास को रीक आगम होता है।
(५) जीन: । यहां ज्या वयोहानौ' (क्रया०प०) धातु से क्त प्रत्यय है। प्रत्यय के कित होने से इस सूत्र से ज्या' धातु के यकार को इकार सम्प्रसारण और 'हल:' (६।४।२) से उसे दीर्घ होता है। ल्वादिभ्यः' (८।२।४४) से निष्ठा के तकार को नकार आदेश होता है।
(६) जिनाति। यहां पूर्वोक्त ज्या' धातु से लट् प्रत्यय है और पूर्ववत् श्ना' विकरण प्रत्यय होता है। श्ना प्रत्यय के सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से डित् होने से ज्या' धातु को सम्प्रसारण होता है।
(७) जेजीयते । यहां पूर्वोक्त ज्या' धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३।१।२२) से यङ् प्रत्यय है। प्रत्यय के डित होने से ज्या' धातु को सम्प्रसारण (जि) होता है। सन्यङो:' (६।१।९) से 'जि' को द्वित्व और गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण होता है।
(८) ऊयतुः । वेञ्+लिट् । वयि+तस् । वय्+अतुस् । उ अ य+अतुस् । उय्+अतुस् । उय्-उय्+अतुस् । उ-उय्+अतुस् । ऊयतुः ।
यहां वेञ् तन्तुसन्ताने (भ्वा०उ०) धातु से लिट् प्रत्यय है। वञो वयि:' (२।४।४१) से वेञ् के स्थान में वयि आदेश होता है। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में तस्' आदेश और परस्मैपदानां णलतुसुस्०' (३।४।८२) से तस्