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________________ २६६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् कार्तकौजपौ। सावर्णिमाण्डूकेयौ। पैलश्यापर्णेयाः । पैलश्यापर्णेयौ। कपिश्यापर्णेया: । शैतिकाक्षपाञ्चालेया: । कटुकवार्चलेयौ । शाकलशुनका: । शाकलसणका:। शुनकधात्रेया: । सणकबाभ्रवा: । आर्चाभिमौद्गलाः । कुन्तिसुराष्ट्रा: । चितिसुराष्ट्राः। तण्डवतण्डाः। गर्गवत्सा:। अविमत्तकामविद्धाः। बाभ्रवशालकायना: । बाभ्रवदानच्युताः। कठकालापा: । कठकौथुमाः। कौथुमलौकाक्षाः । स्त्रीकुमारम्। मौदपैप्पलादा: । द्विपाठ: समासान्तोदात्तार्थ: । वत्सजरत् । सौश्रुतपार्थवाः । जरामृत्यू । याज्यानुवाक्ये इति कार्तकौजपादयः ।। आर्यभाषा: अर्थ-(कार्तकोजपादय:) कार्तकौजप आदि शब्दों के (च) भी (द्वन्द्वे) द्वन्द्वसमास में (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। उदा०-कार्तकौजपौ। कृत और कुजप के पुत्र । सावर्णिमाण्डूकेयौ। सवर्ण और मण्डूक के पुत्र । अवन्त्यश्मका: । अवन्ति और अश्मकजनों का निवास । पैलश्यापर्णेयाः । पीला और श्यापर्णी के पौत्र, इत्यादि। सिद्धि-(१) कार्तकौजपौ । यहां कार्त और कौजप शब्दों का चार्थे द्वन्द्वः' (२ /२।२९) से द्वन्द्वसमास है। कृतस्यापत्यं कार्त: । कृत का पुत्र कार्त कहाता है। कृत' शब्द के ऋषिवाची होने से ऋष्यन्धकवष्णिकुरुभ्यश्च' (४।१।११४) से अपत्य अर्थ में 'अण' प्रत्यय है। अत: यह प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से द्वन्द्वसमास में प्रकृतिस्वर से रहता है। 'कोजप' शब्द में भी पूर्ववत् 'अण्' प्रत्यय जानें। (२) सार्वर्णिमाण्डूकेयौ । यहां सावर्णि और माण्डूकेय शब्दों का पूर्ववत् द्वन्द्वसमास है। 'सावर्णि' शब्द में 'अत इज' (४।१।९५) से अपत्य अर्थ में 'इञ्' प्रत्यय है। प्रत्यय के जित् होने से यह नित्यादिर्नित्यम्' (६।१।१९१) से आधुदात्त है। यह इस सूत्र से द्वन्द्वसमास में प्रकृतिस्वर से रहता है। 'माण्डूकेय' शब्द में मण्डूक शब्द से ढक च मण्डूकात्' (४।१।१२०) से ढक् प्रत्यय है। (३) अवन्त्यश्मका: । यहां अवन्ति और अश्मक शब्दों का पूर्ववत् द्वन्द्वसमास है। 'अवन्ति' शब्द से वृद्धेतकोसलाजादाज्यङ् (४।१।१७१) से अपत्य अर्थ में ज्यङ्' प्रत्यय है, उसका 'तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम्' (२।४।६२) से उसका बहुवचन में लुक होता है-अवन्तेरपत्यानि बहनि-अवन्तयः । पुन: तस्य निवासः' (४।२।६९) से निवास अर्थ में अण्' प्रत्यय और उसका जनपदे लुप्' (४।२।८०) से लोप होता है-अवन्तीनां निवासो जनपद:-अवन्तयः। अवन्ति' शब्द 'घतादीनां च' (फिट०१।२१) से अन्तोदात्त है। इको यणचि (६।१।७५ ) से यण-आदेश होकर उदात्तस्वरितयोर्यण: स्वरितोऽनुदात्तस्य' (८।२।४) से यण् (य) स्वरित होता है। 'अश्मका:' शब्द की सिद्धि 'अवन्तयः' के समान समझें।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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