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________________ २६४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-एकादश । एक और दश ग्यारह । द्वादश । दो और दश बारह । त्रयोदश । तीन और दश-तेरह। सिद्धि-(१) एकादश । यहां एक और दश शब्दों का चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) से द्वन्द्वसमास है। 'आन्महत: समानाधिकरणजातीययोः' (६।३।४५) से एक शब्द को आत्त्व होता है। एक' शब्द 'इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्य: कन्' (उणा० ३।४३) से कन्-प्रत्ययान्त है। प्रत्यय के नित् होने से जित्यादिर्नेत्यम् (६।१।१९१) से यह आधुदात्त है। यह संख्यावाची पूर्वपद इस सूत्र से द्वन्द्वसमास में प्रकृतिस्वर से रहता है। (२) द्वादश। यहां द्वि और दश शब्दों का पूर्ववत् द्वन्द्वसमास है। व्यष्टन: संख्यायामबहुव्रीह्यशीत्योः' (६।४।४६) से द्वि' शब्द को आत्त्व होता है। द्वि' शब्द फिषोऽन्तोदात्त:' (फिट० ११) से अन्तोदात्त है। यह संख्यावाची पूर्वपद इस सूत्र से द्वन्द्वसमास में प्रकृतिस्वर से रहता है। (३) त्रयोदश। यहां त्रि और दश शब्दों का पूर्ववत् द्वन्द्वसमास है। त्रेस्त्रय:' (६।३।४८) से त्रि' के स्थान में त्रयस् आदेश होता है और वह स्थानिवद्भाव से अन्तोदात्त है। यह संख्यावाची पूर्वपद इस सूत्र से द्वन्द्वसमास में प्रकृतिस्वर से रहता है। प्रकृतिस्वर: (३६) आचार्योपसर्जनश्चान्तेवासी।३६। प०वि०-आचार्योपसर्जन: ११ च अव्ययपदम्, अन्तेवासी ११ । स०-आचार्य उपसर्जनम् अप्रधानं यस्मिन् स:-आचार्योपसर्जन: (बहुव्रीहिः)। अन्ते वसतीति-अन्तेवासी (उपपदतत्पुरुषः)। ‘शयवासवासिष्वकालात्' (६ ।३।१७) इति सप्तम्या अलुग् भवति। अनु०-प्रकृत्या, पूर्वपदम्, द्वन्द्वे इति चानुवर्तते। अन्वय:-आचार्योपसर्जनानामन्तेवासिनां द्वन्द्वे पूर्वपदं प्रकृत्या। अर्थ:-आचार्योपसर्जनानामन्तेवासिवाचिनां शब्दानां द्वन्द्वे समासे पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति। उदा०-आपिशलाश्च पाणिनीयाश्च ते-आपिशलपाणिनीयाः । पाणिनीयाश्च रौढीयाश्च ते-पाणिनीयरौढीया: । रौढीयाश्च काशकृत्स्नाश्च ते-रौढीयकाशकृत्स्नाः । आर्यभाषा: अर्थ-(आचार्योपसर्जन:) जहां आचार्य का कथन उपसर्जन गौण है ऐसे (अन्तेवासी) शिष्यवाची शब्दों के (द्वन्द्वे) द्वन्द्वसमास में (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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