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________________ २३६ षष्ठाध्यायस्य द्वितीयः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(नपुंसके) नपुंसकवाची (तत्पुरुषे) तत्पुरुष समास में (मात्रोपज्ञोपक्रमच्छाये) मात्र, उपज्ञा, उपक्रम, छाया उत्तरपद होने पर (पूर्वपदम्) पूर्वपद (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहता है। उदा०-(मात्र) भिक्षामात्रं न ददाति याचितः। वह मांगने पर भिक्षा के तुल्य प्रमाण भी नहीं देता है। समुद्रमात्रं न सरोऽस्ति किञ्चन । समुद्र के तुल्य प्रमाण कोई तालाब नहीं है। (उपज्ञा) पाणिनोपज्ञम् अकालकं व्याकरणम् । पाणिनिमुनि ने अपने उपज्ञान से काललक्षण रहित व्याकरणशास्त्र की रचना की। व्याड्युपज्ञं दशहुष्करणम् । व्याडि मुनि ने अपने उपज्ञान से सर्वप्रथम दश हुए शब्दों सहित काललक्षणयुक्त व्याकरणशास्त्र की रचना की। पाणिनिमुनि के वृत्' शब्द के समान व्याडि मुनि का हुष्' शब्द समाप्ति का सूचक है। आपिशल्युपशं गुरुलाघवम् । आपिशलि मुनि ने सर्वप्रथम गुरु और लघु लक्षणयुक्त व्याकरणशास्त्र की रचना की। (उपक्रम) आद्योपक्रमं प्रासादः। आद्य (विश्वकर्मा) ने सर्वप्रथम प्रासाद-महल बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। दर्शनीयोपक्रमम् । दर्शनीय के द्वारा सर्वप्रथम बनाया हुआ। सुकुमारोपक्रमम् । सुकुमार के द्वारा सर्वप्रथम बनाया हुआ। नन्दोपक्रमाणि मानानि । नन्द नामक राजा ने सर्वप्रथम मान-बांटों से तोलने की पद्धति प्रारम्भ की। (छाया) इषुच्छायम् । इषु-बहुत धान्यों की छाया। धनुश्छायम् । धनुषों की छाया। सिद्धि-(१) भिक्षामात्रम् । भिक्षायास्तुल्यप्रमाणमिति भिक्षामात्रम् । यहां भिक्षा और तुल्य प्रमाण शब्दों का अस्वपदविग्रह तथा षष्ठी तत्पुरुष समास है। मात्र शब्द समासवृत्ति में ही तुल्यप्रमाण अर्थ में होता है। भिक्षा' शब्द में भिक्ष भिक्षायामलाभे लाभे च' (भ्वा०आ०) से गुरोश्च हल:' (३।३।१०३) से 'अ' प्रत्यय है। अत: यह अ-प्रत्ययान्त होने से प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से मात्र' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। (२) समुद्रमात्रम् । समुद्र' शब्द 'पाटलापालङ्कासागरार्थानाम्' (फिट० १२) से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से 'मात्र' शब्द उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। (३) पाणिनोपज्ञम् । पाणिन+डस्+उपज्ञा+सु। पाणिनोपज्ञ+सु । पाणिनोपज्ञम् । यहां पाणिन और उपज्ञा शब्दों का षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। यह उपज्ञोपक्रमं तदाद्याचिख्यासायाम्' (२।४।२१) से नपुंसकलिङ्ग है। पणिनोऽपत्यं पाणिनः । यहां तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से 'अण्' प्रत्यय है। अण्-प्रत्ययान्त 'पाणिन' शब्द प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त है। यह इस सूत्र से उपज्ञा उत्तरपद होने पर प्रकृतिस्वर से रहता है। (४) व्याड्युपज्ञम् । व्याडि+इस+उपज्ञा+सु । व्याड्युपज्ञ+सु। व्याड्युपज्ञम् ।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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