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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
यहां बहुव्रीहि समास के ‘कार्ष्ण' पूर्वपद में मृगवाची 'कृष्ण' शब्द से 'प्राणिरजतादिभ्योऽञ्' (४।३।१५४) से विकार अर्ज में 'अञ्' प्रत्यय है, अतः प्रत्यय के ञित् होने से ज्नित्यादिर्नित्यम्' (६ 1१1१९१) से 'कार्ष्ण' शब्द आद्युदात्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है । 'समासस्य' (६ । १ । २१८) से प्राप्त अन्तोदात्त स्वर नहीं होता है।
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(२) यूपेवलजः । यूप+सु+वलज+सु। यूपवलज+सु। यूपवलजः ।
यहां बहुव्रीहि समास का 'यूप' पूर्वपद 'कुसुयुभ्यश्चं' (दश०3० ७1५) से प- प्रत्ययान्त है, वहां दीर्घ और नित् की अनुवृत्ति है। अतः प्रत्यय के नित् होने से 'यूप' शब्द पूर्ववत् आद्युदात्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृति स्वर से रहता है।
(३) ब्रह्मचारिपेरिस्कन्दः । ब्रह्मचारिन्+सु+परिस्कन्द+सु । ब्रह्मचारिपरिस्कन्द+सु । ब्रह्मचारिपरिस्कन्दः ।
यहां बहुव्रीहि समास के 'ब्रह्मचारी' पूर्वपद में 'व्रत' (३/२/८० ) से णिनि' प्रत्यय और 'उपपदमतिङ्-' ( २ । २ । १९ ) से उपपदतत्पुरुष समास है 'गतिकारकोपपदात् कृत् ( ६ / २ /१३८ ) से 'ब्रह्मचारी' शब्द कृत्स्वर से अन्तोदात्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है।
(४) स्नातकपुत्रः । स्नातक+सु+पुत्र+सु। स्नातकपुत्र+सु। स्नातकपुत्रः ।
यहां बहुव्रीहि समास के 'स्नातक' पूर्वपद में 'यावादिभ्यः कन्' (५।४।२९ ) से 'कन्' प्रत्यय है। अतः प्रत्यय के नित् होने से 'स्नातक' शब्द पूर्ववत् आद्युदात्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है।
(५) अध्याप॑कपुत्रः । अध्यापक+सु+पुत्र+सु। अध्यापकपुत्र+सु। अध्यापकपुत्रः ।
यहां बहुव्रीहि समास के 'अध्यापक' पूर्वपद में 'वुल्तृचौं' (३ 1१1१३३) से 'ण्वुल्' प्रत्यय है। प्रत्यय के लित् होने से 'लिति' (६ । १ । १८७ ) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है, अर्थात् 'अध्यापक' शब्द मध्योदात्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है।
(६) श्रोत्रियपुत्रः । श्रोत्रियन्+सु+पुत्र+सु । श्रोत्रियपुत्र+सु । श्रोत्रियपुत्रः ।
यहां बहुव्रीहि समास का ‘श्रोत्रियन्' पूर्वपद नित् होने से पूर्ववत् आद्युदात्त है। इस सूत्र में वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है।
(७) म॒नु॒ष्य॑नाथ: । मनु॒ष्य+सु+नाथ+सु। मनुष्यनाथ+सु। मनुष्यनाथः ।
यहां बहुव्रीहि समास के पूर्ववद में 'मनुष्य' शब्द में 'मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च' (4 1१1१६१ ) से 'यत्' प्रत्यय है। प्रत्यय के तित् होने से 'तित् स्वरितम्' (६ |१| १७६ ) से 'मनुष्य' शब्द स्वरितान्त है। इस सूत्र से वह बहुव्रीहि समास के पूर्वपद में प्रकृतिस्वर से रहता है।