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षष्टाध्यायस्य प्रथमः पादः
२०३ आर्यभाषा: अर्थ:-(तवै) तवै-प्रत्ययान्त शब्द को (आदिः) आदि और (अन्तः) अन्त को (युगपत्) एक साथ (उदात्त:) उदात्त होता है।
उदा०-कर्तवै। करने के लिये। हर्तवै। हरने के लिए। सिद्धि-कर्तव। कृ+तवै। कर्+तवै। कर्तवै+सु। कतवै+० । कर्तवै ।
यहां कृ' धातु से कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वन:' (३।४।१४) से तवै' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से इगन्त अंग (कृ) को गुण होता है। इस सूत्र से तवै-प्रत्ययान्त कर्तवै' शब्द युगपत् एकदम आधुदात्त और अन्तोदात्त होता है। अत: यहां युगपत्-वचन से 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५३) इस परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं होती है। नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्यपगालवानाम्' (८।४।६७) से स्वरित का प्रतिषेध होने से उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से अनुदात्त को स्वरित आदेश नहीं होता है। आधुदात्त:
(४४) क्षयो निवासे ।१६८/ प०वि०-क्षय: १।१ निवासे ७।१। अनु०-उदात्त:, आदिरिति चानुवर्तते । अन्वय:-निवासे क्षय आदिरुदात्तः । अर्थ:-निवासेऽर्थे क्षयशब्द आदिरुदात्तो भवति।
उदा०-क्षयन्ति=निवसन्त्यस्मिन्निति क्षय: (निवास:)। क्षये (जागृहि प्रपश्यन्) (ऋ० १० १११८।१)।
आर्यभाषा: अर्थ-(निवासे) निवास अर्थ में विद्यमान (क्षयः) क्षय शब्द (आदिः, उदात्त:) आधुदात्त होता है।
उदा०-क्षये (जागृहि प्रपश्यन्) (ऋ० १० १११८।१)। निवासे इति किम् ? क्षयो वर्तते दस्यूनाम्।
सिद्धि-क्षय: । क्षि+घ । क्षे+अ। क्षय्+अ। क्षय+सु । क्षयः ।
यहां क्षि निवासगत्योः' (तु.प.) धातु से 'पुंसि संज्ञायां घ: प्रायेण (३।३।११८) से 'घ' प्रत्यय है। निवास अर्थ में विद्यमान 'क्षय' शब्द इस सूत्र से आधुदात्त होता है। प्रत्ययस्वर से अन्तोदात्त प्राप्त था। जहां निवास अर्थ नहीं है वहां अन्तोदात्त होता है-क्षयः।