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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां लूझ छेदने (ऋयाउ०) धातु से लिट्' प्रत्यय है। तिप्तझि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में सिप्' आदेश परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से 'सिप्' के स्थान में 'थल्’ आदेश है। कृसृभृ०' (७।२।१३) इस कृ-आदि नियम से थल् को इट् आगम होता है। लुलविथ' इस सेट् थलन्त पद में प्रथम 'इट्' उदात्त होता है-लुलविथ । तत्पश्चात् यह अन्तोदात्त होता है-लुलविथ । पुन: यह विकल्प से आधुदात्त होता है-लुलविथ । विकल्प पक्ष में लिति' (६।१।१८७) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है-लुलविथ । इस प्रकार यहां पर्याय से चार उदात्त होते हैं।
नित्यमायुदात्त:
(४०) नित्यादिर्नित्यम्।१६४। प०वि०-निति ७।१ आदि: ११ नित्यम् १।१।
स०-अश्च नश्च तौ अनौ, इच्च इच्च तौ-इतौ, नौ इतौ यस्य स जित्, तस्मिन्-निति (इतरेतरद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)।
अनु०-उदात्त इत्यनुवर्तते। अन्वय:-निति नित्यमादिरुदात्त: ।
अर्थ:-ञित्प्रत्ययान्ते नित्प्रत्ययान्ते च पदे नित्यमादिरुदात्तो भवति । प्रत्ययस्वरापवादोऽयम्।
उदा०-(जित्) गार्ग्य:, वात्स्य:। (नित्) वासुदेवकः, अर्जुनकः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(निति) जित्-प्रत्ययान्त और नित्-प्रत्ययान्त पद में (नित्यम्) सदा (आदिः, उदात्त:) आधुदात्त होता है।
उदा०-(जित्) गार्य: । गर्ग का पौत्र। वात्स्यः। वत्स का पौत्र। (नित) वासुदेवकः । वासुदेव कृष्ण का सेवक । अर्जुनकः । अर्जुन का सेवक।
सिद्धि-(१) गाय: । गर्ग+यज् । गार्ग+य। गाये+सु । गार्य: ।
यहां 'गर्ग' शब्द से गर्गादिभ्यो यत्र (४।१।१०५) से यञ्' प्रत्यय है। इस जित्-प्रत्ययान्त पद को इस सूत्र से नित्य आधुदात्त होता है। ऐसे ही 'वत्स' शब्द पे-वात्स्य:।
(२) वासुदेवकः । वासुदेव+कन् । वासुदेव+क। वासुदेवक+सु। वासुदेवकः ।
यहां वासुदेव' शब्द से वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्' (४।१।९८) से 'वुन्' प्रत्यय है। युवोरनाकौ' (७।१।१) से वु' के स्थान में 'अक' आदेश होता है। इस नित्-प्रत्ययान्त पद को इस सूत्र से नित्य आधुदात्त होता है।