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________________ षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः ૧૬૧ अर्थ:-षट्त्रिचतुभ्य उत्तरा या झलादिविभक्तिस्तदन्ते पदे उपोत्तममक्षरमुदात्तं भवति। उदा०-(षट्) पञ्चभि: (तपस्तपति} (तै०सं० ५।२।७।५) । सप्तभि: परान् जयति । (त्रि:) तिसृभिश्च वहसे त्रिंशता (शौ०सं०७।४।१)। (चतुर्) चतुर्भिः (यजु० २३।१३) । ___ आर्यभाषा: अर्थ-(पत्रिचतुर्थ्य:) षट्-संज्ञक त्रि और चतुर् शब्दों से उत्तर जो (झलि) झलादि (विभक्ति) है, उस पद में (उपोत्तमम्) उपोत्तम अक्षर (उदात्त:) उदात्त होता है। __ उदा०-(षट्) पञ्चभिः (तपस्तपति) (तै०सं० ५।२७।५)। सप्तभिः परान् जयति। (त्रि:) तिसृभिश्च वहसे त्रिंशता (शौ०सं० ७।४।१)। (चतुर्) चतुर्भि: (यजु० २३ ।१३)। सिद्धि-पञ्चभिः । पञ्चन्+भिस् । पञ्च+भिस् । पञ्चभिः । यहां 'पञ्चन्' शब्द की 'ष्णान्ता षट्' (१।१।२३) से षट् संज्ञा है। इससे उत्तर झलादि भिस्’ विभक्ति परे होने पर यहां पञ्चभिः' पद का उपोत्तम अक्षर उदात्त है। तीन अक्षरों में जो अन्तिम अक्षर होता है उसे उत्तम कहते हैं और उत्तम के समीपवर्ती अक्षर को 'उपोत्तम' कहा जाता है। अत: यहां उपोत्तम (अ) वर्ण उदात्त होकर अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६।१।१५३) से शेष पद अनुदात्त होता है। उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से उदात्त से उत्तरवर्ती अनुदात्त को स्वरित आदेश होता है। ऐसे ही-सप्तभिः । (२) तिसृभिः । त्रि+भिस् । तिसृ+भिस् । तिसृभिः । यहां स्त्रीत्व-विवक्षा में त्रिचतुरो: स्त्रियां तिसृचतसृ' (७।२।९९) से तिसृ-आदेश होता है। 'त्रिभिः' में तीन अक्षर न होने से उपोत्तम' अक्षर नहीं बनता है, अत: यह तिसृभिः' उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। स्वरकार्य पूर्ववत् है। (३) चतुर्भिः । चतुर्+भिस् । चतुर्भिः । पूर्ववत् । उपोत्तमोदात्त-विकल्प: (२४) विभाषा भाषायाम्।१७८। प०वि०-विभाषा ११ भाषायाम् ७।१। अनु०-उदात्त:, विभक्तिः, षट्त्रिचतुर्य:, झलि, उपोत्तमम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-भाषायां षट्त्रिचतुर्यो झलि विभक्तावुपोत्तमं विभाषा उदात्तम्।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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