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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय और (मन्त्रे) मन्त्र-विषय में (चन्द्रोत्तरपदे) चन्द्र शब्द उत्तरपद परे होने पर (ह्रस्वात्) ह्रस्व-वर्ण से परे (सुट्) सुट् आगम निपातित है।
उदा०-सुश्चन्द्र (युष्मान्} (ऋ० ५।६।५)।
सिद्धि-(१) सुश्चन्द्र: । सु+चन्द्र । सु+सुट्+चन्द्र । सु+स्+चन्द्र । सु+श्+चन्द्र। सुश्चन्द्र+सु । सुश्चन्द्रः ।
यहां मन्त्र-विषय में इस सूत्र से चन्द्र शब्द उत्तरपद होने पर 'सु' शब्द के ह्रस्व-वर्ण (उ) से परे चन्द्र' के च-वर्ण से पूर्व 'सुट' आगम निपातित है। 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।३९) से सकार को शकार आदेश होता है। सु और चन्द्र शब्दों का 'कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है-सुश्चन्द्रः । निपातनम् (सुट)
(७६) प्रतिष्कशश्च कशेः ।१५०। प०वि०-प्रतिष्कश: ११ च अव्ययपदम्, कशे: ६।१। अनु०-संहितायाम्, सुट् इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां प्रतिकशश्च कशे: सुट् ।
अर्थ:-संहितायां विषये 'प्रतिकश:' इत्यत्र च कशेर्धातो: सुडागमो निपात्यते। उदाहरणम्
ग्राममद्य प्रवेक्ष्यामि भव मे त्वं प्रतिष्कश:।। वार्तापुरुषः, सहाय:, पुरोयायी वा प्रतिष्कश:' इत्यभिधीयते।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में प्रतिष्कशः' इस पद में (च) भी (कशे:) कश धातु को (सुट्) सुट् आगम निपातित है। उदाहरण
ग्राममद्य प्रवेक्ष्यामि भव मे त्वं प्रतिष्कशः ।। आज मैं ग्राम में प्रवेश करूंगा (जाऊंगा) तू मेरा प्रतिष्कश वार्तापुरुष (सहाय) हो। दोनों वहां तक बातचीत करते हुये चलेंगे।
सिद्धि-प्रतिष्कश: । प्रति-कश्+अच् । प्रति+सुट्+कश्+अ। प्रति+स्+कश्+अ। प्रति++कश्+अ। प्रतिष्कश+सु । प्रतिष्कशः।
यहां प्रति-उपसर्गपूर्वक कश गतिशासनयोः' (भ्वा०3०) धातु से नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यच:' (३।१।१३४) से पचादि 'अच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से कश्' धातु के क-वर्ण से पूर्व सुट् आगम और उसे षत्व भी निपातित है। यहां प्रति और कश शब्दों का कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है।