________________
१५१
षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-संहितायां विषये शकुनावर्थे विष्किर इत्यत्र विकल्पेन सुडागमो निपात्यते।
उदा०-विष्किर: शकुनिः । विकिर: शकुनिः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (शकुनौ) पक्षी अर्थ में (विष्किरः) 'विष्किर:' इस पद में (वा) विकल्प से (सुट्) सुट् आगम निपातित है।
उदा०-विष्किर: शकुनिः । विष्किर पक्षी। विकिरः शकुनिः । विकिर=पक्षी।
सिद्धि-(१) विष्किरः । वि+कृ+क। वि+सुट्+कृ+अ। वि+स्+कि+अ। वि+ष्+कि+अ। विष्किर+सु। विष्किरः ।
यहां वि-उपसर्गपूर्वक कृ विक्षेपे' (तु०प०) धातु से 'गुपधज्ञाप्रीकिर: क:' (३।१।१३५) से 'क' प्रत्यय है। इस सूत्र से शकुनि अर्थ में 'कृ' के क-वर्ण से पूर्व सुट् आगम और उसे षत्व निपातित है। 'ऋत इद्धातो:' (७।१।१००) से इत्त्व और उसे उरण रपरः' (१।१।५०) से रपरत्व (इर्) होता है। विविधं किरति=विक्षिपति निजपक्षान् इति-विष्किरः शकुनिः ।
(२) विकिरः । यहां विकल्प पक्ष में सुट्' आगम नहीं है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: काशिकावृत्ति में 'विष्किर: शकुनिर्विकिरो वा' यह सूत्रपाठ है। महाभाष्य में विष्किरः शकुनौ वा' ऐसा सूत्रपाठ मिलता है। यहां महाभाष्य का श्रेष्ठ सूत्रपाठ स्वीकार किया गया है। निपातनम् (सु)
(७८) ह्रस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे।१४६ | प०वि०-ह्रस्वात् ५।१ चन्द्रोत्तरपदे ७।१ मन्त्रे ७।१ ।
स०-चन्द्रश्चासौ उत्तरपदं च चन्द्रोत्तरपदम्, तस्मिन्-चन्द्रोत्तरपदे (कर्मधारयः)।
अनु०-संहितायाम्, सुट् इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां मन्त्रे चन्द्रोत्तरपदे ह्रस्वात् सुट्।
अर्थ:-संहितायां मन्त्रे च विषये चन्द्रशब्दे उत्तरपदे ह्रस्वात् पर: सुडागमो निपात्यते।
उदा०-सुश्चन्द्र {युष्मान्} (ऋ० ५।६।५)।