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________________ १४० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-संहितायां विषये सम्परिभ्याम् उत्तरस्मिन् भूषणेऽर्थे करोतौ परत: कात् पूर्व: सुडागमो भवति। उदा०-(सम्) सँस्कर्ता, सँस्कर्तुम्, सँस्कर्तव्यम् । (परिः) परिष्कर्ता, परिष्कर्तुम्, परिष्कर्तव्यम्। आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (सम्परिभ्याम्) सम् और परि से उत्तर (भूषणे) भूषण अर्थ में (करोतौ) कृ धातु के परे होने पर (कात्) क-वर्ण से (पूर्व:) पहले (सुट्) सुट् आगम होता है। __उदा०-(सम्) सँस्कर्ता । भूषित करनेवाला। सँस्कर्तुम् । भूषित करने के लिये। सँस्कर्तव्यम् । भूषित करना चाहिये। (परि) परिष्कर्ता। भूषित करनेवाला। परिष्कर्तुम् । भूषित करने के लिये। परिष्कर्तव्यम् । भूषित करना चाहिये। सिद्धि-सँस्कर्ता । सम्+कृ+तृच् । सम्+कर्तृ+सु। सम्+कर्ता। सम्+सुट्+कर्ता। स रु+स्+कर्ता। सँ +स+कर्ता। सँ स्+स्+कर्ता। सँस्स्कर्ता। सँस्कर्ता। यहां सम् शब्द से उत्तर भूषणार्थक कृ' धातु के परे होने पर इस सूत्र से क-वर्ण से पूर्व 'सुट' आगम होता है। 'सम: सुटिं' (८॥३१५) से सम्' के मकार को रुत्व, खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८।३।१५) से रेफ को विसर्जनीय और वा शरि' (८।३।३६) से व्यवस्थित-विभाषा मानकर विसर्जनीय को सकार ही आदेश होता है। 'अत्रानुनासिक: पूर्वस्य तु वा' (८।३।२) से 'स्' से पूर्ववर्ती अ-वर्ण को अनुनासिक तथा द्वितीय पक्ष में 'अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः' (८।३।४) से अनुस्वार भी होता है। 'झरो झरि सवर्णे (८।४।६४) से प्रथम सकार का लोप होता है। वाo-'अयोगवाहानामट्सु' (प्र०हरवरट) इस भाष्यवार्तिक से अयोगवाह (अ) का अट् में उपदेश होने से उसे हल् मानकर उक्त सूत्र से सकार का लोप हो जाता है और अयोगवाहों (अँ) को अचों में भी परिगणित करके 'अनचि च' (८।४।४६) से स्' को द्वित्व भी होता है। इस प्रकार इसके निम्नलिखित रूप बनते हैं (१) सँस्कर्ता (संस्कर्ता)। (२) सँस्स्कर्ता (संस्स्कर्ता)। (३) सँस्स्स्कर्ता (संस्स्कर्ता)। ऐसे ही कृ' धातु से तुमुन् और तव्यत् प्रत्यय करने पर-सँस्कर्तुम्, सँस्कर्तव्यम् । (२) परिष्कर्ता । परि+कर्ता। परि+सुट्+कर्ता। परि+स्+कर्ता । परि+ष्+कर्ता। परिष्कर्ता। यहां परि शब्द से उत्तर भूषणार्थक कृ' धातु को इस सूत्र से सुट्' आगम होता है। परिनिविभ्य: सेव०' (८।३१७०) से 'सुट' के सकार को षत्व होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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