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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय और (यजुषि) यजुर्वेद विषय में जो (एङ्) एड् वर्ण है वह (अनुदात्ते) अनुदात्त (कु-धपरे) कवर्गपरक और धकारपरक (अति) अ-वर्ण परे होने पर (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।
उदा०-कवर्गपरक अकार-अयं नो अग्नि: (यजु० ५ ॥३७) । धकारपरक अकारअयं सो अध्वरः।
सिद्धि-(१) नो अग्निः। यहां नो' शब्द का एङ्-वर्ण (ओ) 'अग्नि' शब्द के अनुदात्त एवं कवर्गपरक अ-वर्ण परे होने पर याजुष विषय में इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'एङ: पदान्तादति (६।१।१०८) से प्राप्त पूर्वरूप एकादेश नहीं होता है। 'अग्नि' शब्द अनुदात्तादि है।
(२) सो अध्वरः । यहां 'सो' शब्द का एङ् वर्ण (ओ) 'अध्वर' शब्द के अनुदात्त एवं धकारपरक अ-वर्ण परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् पूर्ववत् प्राप्त पूर्वरूप एकादेश नहीं होता है। 'अध्वर' शब्द अनुदात्तादि है। प्रकृतिभावः
(४६) अवपथासि च।१२०। प०वि०-अवपथासि ७१ च अव्ययपदम् ।
अनु०-संहितायाम्, एङ:, अति, प्रकृत्या, यजुषि, अनुदात्ते इति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायां यजुषि एङ् अनुदात्तेऽवपथासि चाति प्रकृत्या।
अर्थ:-संहितायां यजुषि च विषये य एङ्-वर्ण: सोऽनुदात्तेऽवपथासि चाति परत: प्रकृत्या भवति ।
उदा०-त्री रुद्रेभ्यो अवपथा: (का०सं० ३०।६।३२) ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय और (यजुषि) यजुर्वेद विषय में (एड्) एड्-वर्ण (अनुदात्ते) अनुदात्त (अवपथासि) 'अवपथा:' शब्द विषयक (अति) अ-वर्ण परे होने पर (च) भी (प्रकृत्या) प्रकृतिभाव से रहता है।
उदा०-त्री रुद्रेभ्यो अवपथा: (का०सं० ३०।६।३२)।
सिद्धि-रुद्रेभ्यो अवपथाः। यहां रुद्रेभ्यो' शब्द का एङ्-वर्ण (ओ) अवपथासि शब्द विषयक अनुदात्त अ-वर्ण परे होने पर इस सूत्र से प्रकृतिभाव से रहता है अर्थात् 'एङ: पदान्तादति (६।१।१०८) से प्राप्त पूर्वरूप एकादेश नहीं होता है।
'अवपथा:' यहां डुवप बीजसन्ताने छेदने च' (भ्वा०३०) धातु से लङ् प्रत्यय और उसके स्थान में 'थास्’ आदेश है और तिङ्ङतिङः' (८1१।२८) से अनुदात्त होता है।