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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
उदा०-पटत्-पटत् इति = पटत्पटदिति, पटत्पटेति ।
आर्यभाषाः अर्थः- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (आम्रेडितस्य) आम्रेडित- संज्ञक (अव्यक्तानुकरणस्य) अव्यक्त ध्वनि के अनुकरणात्मक शब्द के (अत:) अत् शब्द से उत्तर (इतौ ) इति शब्द परे होने पर (पूर्वपरयोः) पूर्व - पर के स्थान में (पररूपम्) पररूप (एक) एकादेश (न) नहीं होता है (तु) किन्तु उसके ( अन्त्यस्य) अन्तिम तकार को (वा) विकल्प से (पररूपम्) पररूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-पटत्-पटत् इति= पटत्पटदिति । पटत्-पटत् ऐसी अव्यक्त ध्वनि - पटत्पटदिति, पटत्पटेति ।
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सिद्धि- (१) पटत्पटदिति । पटत्+इति । पटत्-पटत्+इति। पटपटदिति।
यहां अव्यक्त ध्वनि के अनुकरणात्मक 'पटत्' शब्द को 'नित्यवीप्सयो:' (८1१1४) से वीप्सा- अर्थ में द्वित्व होता है । 'तस्य परमाम्रेडितम्' (८ 1१ 12 ) से परवर्ती 'पटत्' शब्द की आम्रेडित-संज्ञा है। इस आम्रेडित- संज्ञक 'पटत्' शब्द से उत्तर 'इति' शब्द परे होने पर उसके 'अत्' शब्द और 'इति' के इकार के स्थान में इस सूत्र से पररूप एकादेश नहीं होता है।
(२) पटत्पटेति । पटत्+इति । पटत्-पटत्+इति । पटत्-पट + इति । पटत्पटेति । यहां आम्रेडित-संज्ञक 'पटत्' शब्द के अन्त्य तकार को इस सूत्र से विकल्प से पररूप (इ) एकादेश है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
विशेषः काशिकाकार पं० जयादित्य ने नित्यमाम्रेडिते डाचिं' (६ 181200) इस वार्तिक की पाणिनीय सूत्र मानकर व्याख्या की है । “वार्तिकमेवेदम्, वृत्तिकृता सूत्ररूपेण पठितम्” इति पदमञ्जर्यं पण्डितहरदत्तमिश्रः ।
दीर्घ-एकादेशः
(२६) अकः सवर्णे दीर्घः । १०० । प०वि०-अक: ५ ।१ सवर्णे ७ । १ दीर्घः १ । १ ।
अनु० - संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोरिति चानुवर्तते । 'अचि' इति च मण्डूकोत्प्लुत्यानुवर्तनीयम्।
अन्वयः-संहितायाम् अकः सवर्णेऽचि पूर्वपरयोर्दीर्घ एकः ।
अर्थः-संहितायां विषयेऽक उत्तरस्मात् सवर्णेऽचि परतः पूर्वपरयोः
स्थाने दीर्घरूप एकादेशो भवति ।
उदा०-दण्डाग्रम्, दधीन्द्र:, मधूदके, होतृश्य: ।