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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अक:) अक् वर्ण से उत्तर (सवर्णे) सवर्ण (अचि) अच् वर्ण परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व-पर के स्थान में (दीर्घ:) दीर्घरूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-दण्डानम् । दण्ड का अग्रभाग (ठोरा)। दधीन्द्रः । दधि-दही का स्वामी। मधूदके। मधु शहद और उदक जल। होतृश्यः। होता का ऋश्य-सफेद पैरोंवाला बारहसिंघा।
सिद्धि-(१) दण्डानम् । दण्ड+अग्रम् । दण्डानम् ।
यहां दण्ड के अक् (अ) से उत्तर सवर्ण अच् (अ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में इस सूत्र से दीर्घरूप (आ) एकादेश होता है।
(२) दधीन्द्रः । दधि+इन्द्रः । दधीन्द्रः ।
यहां दधि के अक् (इ) से उत्तर सवर्ण अच् (इ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में इस सूत्र से दीर्घरूप (ई) एकादेश होता है।
(३) मधूदके । मधु+उदकम् । मधूदके।
यहां मधु के अक् (उ) से उत्तर सवर्ण अच् (उ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में इस सूत्र से दीर्घरूप (ऊ) एकादेश होता है।
(४) होतृश्य: । होतृ+ऋश्य: । होतृश्यः ।
यहां होतृ के अक् (ऋ) से उत्तर सवर्ण अच् (ऋ) परे होने पर पूर्व-पर के स्थान में इस सूत्र से दीर्घरूप (ऋ) एकादेश होता है।
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्' (१।१।९) से अकार आदि वर्गों की परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है। पूर्वसवर्ण-एकादेशः
(३०) प्रथमयोः पूर्वसवर्णः ।१०१। प०वि०-प्रथमयो: ७।२ पूर्वसवर्ण: १।१।
स०-प्रथमा च प्रथमा च ते, प्रथमे, तयो:-प्रथमयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। पूर्वस्य सवर्ण: पूर्वसवर्ण: (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-संहितायाम्, अचि, एक:, पूर्वपरयोः, अकः, दीर्घ इति चानुवर्तते ।
__ अन्वयः-संहितायाम् अक: प्रथमयोरचि पूर्वपरयो: पूर्वसवर्णो दीर्घ एक: ।