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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) उपार्छति । उप+ऋच्छ+लट् । उप+ऋच्छ+तिम्। उप+ऋच्छ्+ शप्+ति। उप+ऋच्छ्+अ+ति । उपाछति।
यहां उप-उपसर्ग के अकार और ऋकारादि ऋच्छ् धातु के ऋकार को इस सूत्र से वृद्धिरूप (आ) एकादेश होता है और उसे उरण रपरः' (११११५०) से रपत्व (आर्) होता है। ऐसे ही-प्र+ऋच्छति-प्राच्छति।
(२) उपार्नोति । उप+ऋध्+लट् । उप+ऋध्+तिप्। उप+ऋध्+श्नु+ति। उप+ऋध्+नो+ति। उपार्नोति।
यहां उप-उपसर्ग के अकार और ऋकारादि ऋध् धातु के ऋकार को इस सूत्र से वृद्धिरूप (आ) एकादेश और उसे पूर्ववत् रपरत्व होता है। स्वादिभ्यः अनुः' (३।१।७३) से अनु विकरण-प्रत्यय और सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से गुण होता है। वृद्धि-एकादेशविकल्प:
(२१) वा सुप्यापिशलेः ।१२। प०वि०-वा अव्ययपदम्, सुपि ७१ आपिशले: ६।१।।
अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोः, आत्, वृद्धि:, उपसर्गात्, ऋति, धाताविति चानुवर्तते।
अन्वयः-संहितायाम् आद् उपसर्गात् सुपि ऋति धातौ पूर्वपरयो वृद्धिरेक आपिशलेः।
___ अर्थ:-संहितायां विषयेऽकारान्ताद् उपसर्गात् सुबन्तावयवे ऋकारादौ धातौ परत: पूर्वपरयो: स्थाने विकल्पेन वृद्धिरूप एकादेशो भवति, आपिशलेराचार्यस्य मतेन।
उदा०-उपार्षभीयति, उपर्षभीयति । उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति । 'वा' इत्यनेनैव विकल्पे सिद्धे आपिशालिग्रहणं पूजार्थं वेदितव्यम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (आत्) अकारान्त (उपसर्गात्) उपसर्ग से उत्तर (सुपि) सुबन्त के अवयव (ऋति) ऋकारादि (धातौ) धातु परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व, पर के स्थान में (वा) विकल्प से (वृद्धि:) वृद्धिरूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-उपार्षभीयति, उपर्षभीयति । ऋषभ बैल के समान आचरण करता है। उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति । लकार के समान उच्चारण करता है। यहां 'वा' वचन से ही विकल्प सिद्ध है अत: आपिशलि का ग्रहण पूजा (आचार्य-सम्मान) के लिये किया गया है।