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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
सिद्धि - (१) उपार्षभीयति। उप+ऋषभ+क्यच्। उप+ऋषभ+य। उप+ऋषभी+य। उपर्षभीय+लट् । उपार्षभीय+तिप् । उपार्षभीय+शप्+ति। उपार्षभीय+अ+ति । उपार्षभीयति ।
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यहां उप-उपसर्ग से उत्तर सुबन्त के अवयव ऋषभीय' धातु के ऋकार का इस सूत्र से वृद्धिरूप (आ) एकादेश है और उसे 'उरण् रपरः ' (१1१1५०) से रपरत्व (आर् ) होता है।
(२) उपर्षभीयति। यहां विकल्प पक्ष में उक्त अकार और ऋकार को वृद्धिरूप एकादेश नहीं होता है अपितु 'आद् गुण:' (६।१।८५) से गुणरूप (अ) एकादेश और उसे पूर्ववत् रपरत्व होता है।
(३) उपाल्कारीयति । उप + लृकारीयति । उप्-आल्कारीयति । उपाल्कारयति । यहां उप-उपसर्ग से उत्तर सुबन्त के अवयव लृकारीय' धातु के लृ को इस सूत्र से वृद्धिरूप (आ) एकादेश और उसे पूर्ववत् लपरत्व होता है ।
(४) उपल्कारीयति । यहां विकल्प पक्ष में उक्त अकार और लृकार को वृद्धिरूप एकादेश नहीं होता है अपितु 'आद् गुण:' ( ६ । १ । ८५) से गुणरूप एकादेश (अ) और उसे पूर्ववत् परत्व होता है।
“ऋकारलृकारयोः सवर्णविधिः” इस वचन प्रमाण से ऋकार और लृकार वर्णों का सावर्ण्य है अतः ऋकार के ग्रहण से लृकार का भी ग्रहण किया जाता है। अतः यह लृकार का उदाहरण दिया गया है। 'उरण् रपरः' (१1१1५०) से ऋकार को रपरत्व और लृकार को लपरत्व होता है।
आकार-एकादेश:
(२२) औतोऽम्शसोः । ६३ ।
प०वि०-आ १।१ (सु-लुक् ) ओत: ५ ।१ अम्शसोः ७ । २ । स०-अम् च शस् च तौ अम्शसौ, तयो: - अम्शसो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः ) ।
अनु० - संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोरिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् ओतोऽम्शसो: पूर्वपरयोरा एकः ।
अर्थ :- संहितायां विषये ओकाराद् अमि शसि च प्रत्यये परतः पूर्वपरयोः स्थाने आकाररूप एकादेशो भवति ।
उदा० - त्वं गां पश्य, त्वं गाः पश्य । त्वं द्यां पश्य, त्वं द्याः पश्य ।