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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
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(३) ऐक्षिष्यत । यहां 'ईक्ष दर्शने' (भ्वा०आ०) धातु से 'लृङ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) औभीत् । उभ्+लुङ् । आट्+उभ्+च्लि+ल् । आ+उभ्+सिच्+तिप् । आ+उभ्+ इट् + स् +ईट्+त् । आ+उभ्+इ+०ई+त्। औभीत् ।
यहां 'उभ पूरणे' (तु०प०) धातु से लुङ् प्रत्यय है और 'आडजादीनाम्' (६।४।७२ ) से आट् आगम होता है। इस सूत्र से आटू के आकार और उभ के उकार को वृद्धिरूप (औ) एकादेश होता है । 'च्ले: सिच्' (३।१।४४) से चिल के स्थान में सिच् आदेश, 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५ ) से सिच् को इट् आगम, 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' (७।३ ।९६ ) से तिप्' को ईट् आगम और 'इट ईटि' (८।२।२८) से सिच् के सकार का लोप होता है। ऐसे ही 'उब्ज आर्जवे' (तु०प०) धातु से - औब्जीत् ।
(५) आर्ध्नोत् । ऋध्+लङ् । आट्+ऋध्+तिप् । आ+ऋध्+श्नु+ति । आ+ऋध्+ श्नु+त् । आर् ध्+नो+त् । आर्ध्वोत् ।
यहां 'ऋधु वृद्धौं' (स्वा०प०) धातु से लङ् प्रत्यय और 'आडजादीनाम्' (६।४।७२ ) से आट् आगम है। इस सूत्र से आट् के आकार और ऋध् धातु के ऋकार को वृद्धिरूप (आ) एकादेश होता है और उसे 'उरण् रपरः ' (१1१/५०) से रपरत्व (आर् ) होता है। 'स्वादिभ्यः श्नुः' (३।१।७३ ) से श्नु विकरण - प्रत्यय और सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण होता है।
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वृद्धि-एकादेशः
(२०) उपसर्गादृति धातौ । ६१ ।
प०वि० - उपसर्गात् ५।१ ऋति ७।१ धातौ ७ । १ ।
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अनु० - संहितायाम्, एकः पूर्वपरयोः, आद्, वृद्धिरिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् आद् उपसर्गाद् ऋति धातौ पूर्वपरयोर्वृद्धिरेकः । अर्थ:-संहितायां विषयेऽवर्णान्तादुपसर्गाद् ऋकारादौ धातौ परत: पूर्वपरयोः स्थाने वृद्धिरूप एकादेशो भवति ।
उदा० - उपाच्छति । प्राच्छेति । उपार्थ्योति ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि- विषय में (आत्) अकारान्त (उपसर्गात् ) उपसर्ग से उत्तर (ऋति) ऋकारादि (धातौ ) धातु परे होने पर (पूर्वपरयोः) पूर्व, पर के स्थान में (वृद्धि:) वृद्धिरूप (एक: ) एकादेश होता है।
उदा० - उपार्च्छति। वह प्राप्त करता है । प्राच्छेति । वह प्राप्त करता है। उपार्ध्नाति । वह बढ़ता है।