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अनुभूमिका स्वर पर उपरि-रेखा अंकित की जाती है। जैसे-कन्यो । सामवेद में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों के लिये १, २, ३ अंक निर्धारित किये गये हैं। जैसे-अग्नि: अग्नि। कन्या कन्या। स्वराङ्कन-विधिः___पाणिनि मुनि ने स्वराङ्कन की यह विधि बतलाई है कि-'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५८) स्वर-प्रकरण में यह परिभाषा-सूत्र सर्वत्र प्रवृत्त होता है अर्थात् स्वर प्रकरण में जिस एक पद में उदात्त वा स्वरित जिस वर्ण को विधान करें उससे पृथक् जितने वर्ण हों, वे सब अनुदात्त होते हैं। जैसे-गोपायति, धूपायति । यहां 'धातो:' (६।१।१५९) से धातु को अन्तोदात्त स्वर विधान किया गया है अत: गोपाय' धातु का अन्तिम स्वर (अ) उदात्त होकर शेष सब स्वर अनुदात्त हो जाते हैं। तत्पश्चात् 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से उदात्त से परवर्ती स्वर अनुदात्त हो जाता है। जैसे कि ऊपर-गोपयाति, धूपायति उदाहरणों में दर्शाया गया है। ___'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५८) इस सूत्र के प्रयोजन के विषय में पतंजलि मुनि लिखते हैं
आगमस्य विकारस्य प्रकृतेः प्रत्ययस्य च ।
पृथक्स्वरनिवृत्त्यर्थमेकवर्ज पदस्वरः।। (महा० ६।१।१५८) अर्थ-आगम, विकार, प्रकृति और प्रत्यय का पृथक्-पृथक् स्वर न हो इसलिये इस सूत्र का आरम्भ किया है। जैसे--
(१) आगम-चत्वारः । अनड्वाह: । यहां चतुर् और अनडुह् शब्दों को जो ‘आम्' आगम हुआ है, उसी का स्वर रहता है और प्रकृतिस्वर की निवृत्ति हो जाती है अर्थात् प्रकृति और आगम के दोनों स्वर एकपद में एक साथ नहीं रह सकते।
(२) विकार-जो किसी वर्ण वा शब्द को आदेश होता है उसे विकार कहते हैं। जैसे-अस्मा, दना । यहां अस्थि और दधि शब्द प्रथम आधुदात्त हैं, पश्चात् तृतीया-आदि अजादि विभक्तियों में इन्हें उदात्त अनङ् आदेश होकर प्रकृति और उक्त आदेश के दो स्वर प्राप्त होते हैं, सो नहीं होते, अपितु आदेश का स्वर होता है।
(३) प्रकृति-धातु वा प्रातिपदिक जिससे प्रत्यय उत्पन्न होते हैं उसे प्रकृति कहते हैं। जैसे-गोपायति, धूपायति । यहां प्रकृतिस्वर गोपाय, धूपाय धातु को अन्तोदात्त और प्रत्ययस्वर 'आय' प्रत्यय को आधुदात्त दो स्वर प्राप्त हैं, सो न हों किन्तु प्रत्ययस्वर को बाध के प्रकृतिस्वर होजावे।
(४) प्रत्यय-जो धातु वा प्रातिपदिक से किया जाता है उसे प्रत्यय कहते हैं। जैसे- कर्तव्यम्, तैत्तिरीय: । यहां 'कृ' धातु और तित्तिर प्रातिपदिक से 'तव्य' और 'छ'