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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् इससे पूर्ववर्ती 'त' और उत्तरवर्ती 'न' ये दोनों उदात्त हैं.। अत: इसे 'ताथाभाव्य' स्वरित स्वर कहते हैं। (६) एकश्रुति सातवां स्वर एकश्रुति है। महर्षि पतंजलि ने एकश्रुति स्वर की यह व्याख्या की है 'किं पुनरियमेकश्रुतिरुदात्ता, आहोस्विदनुदात्ता ? नोदात्ता। कथं ज्ञायते ? यदयमुच्चैस्तरां वा वषट्कार: (१।२।३५) इत्याह । कथं कृत्वा ज्ञापकम् ? अतन्त्रं तरनिर्देश: । यावदुच्चैस्तावदुच्चस्तरामिति । यदि तर्हि नोदात्ता, अनुदात्ता । अनुदात्ता च न। कथं ज्ञायते ? यदयम्-'उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः' (१।२।४०) इत्याह । कथं कृत्वा ज्ञापकम् ? अतन्त्रं तरङ्निर्देश: । यावत्सन्नस्तावत् सन्नतर इति । सैषा ज्ञापकाभ्यामुदात्तानुदात्तयोर्मध्यमेकश्रुतिरन्तरालं हियते' (महाभाष्यम्)। अर्थ-क्या यह एकश्रुति उदात्त होती है अथवा अनुदात्त ? उदात्त नहीं होती है। कैसे जाना जाता है ? आचार्य पाणिनि मुनि ने 'उच्चस्तरां वा वषट्कार:' (१।२।३५) यह सूत्र जो बनाया है। उदात्त कहो वा उदात्ततर 'उच्चस्तराम्' कहो, एक ही बात है। यदि एकश्रुति उदात्त होती तो उच्चस्तरां वा वषट्कारः' (१।२।३५) इस सूत्र में उच्चस्तराम् कहने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूलसामसु' (१।२।३४) इस सूत्र से 'एकश्रुति' की अनुवृत्ति थी ही, फिर उक्त सूत्र में उच्चस्तराम्' (उदात्ततर) कथन से ज्ञापक होता है कि एकश्रुति' उदात्त नहीं होती है। उदात्त और उदात्ततर में विशेष अन्तर नहीं है। यदि एकश्रुति उदात्त नहीं है तो वह अनुदात्त भी नहीं होती है। कैसे जाना जाता है ? आचार्य पाणिनि मुनि ने 'उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः' (१।२।४०) में जो सन्नतर (अनुदात्ततर) कहा है। यह कैसे ज्ञापक होता है ? यदि ‘एकश्रुति' अनुदात्त होती तो 'उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः' (१।२।४०) में ‘सन्नतर' कहने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि 'एकश्रुतिदूरात् सम्बुद्धौ' (१।२।३३) से एकश्रुति' की अनुवृत्ति थी ही। फिर इस पृथक् ‘सन्नतर' कथन से ज्ञापक होता है कि एकश्रुति' अनुदात्त नहीं होती है। अत: इन उक्त ज्ञापकों से यह सार निकलता है कि एकश्रुति' न उदात्त है और न अनुदात्त है। इसमें दूध और जल के मिश्रण के तुल्य उदात्त और उदात्त का भेद तिरोहित हो जाता है। अत: यह एक पृथक् स्वर है। (७) उदात्त आदि स्वरों के चिह्न ऋग्वेद आदि संहिता-ग्रन्थों में उदात्त आदि स्वरों को प्रकट करने के लिये कुछ चिह्न निर्धारित किये गये हैं जिन्हें वेदमन्त्रों पर अङ्कित करके उदात्त अदि स्वरों को अभिव्यक्त किया गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में उदात्त के लिये कोई चिह्न नहीं है। अनुदात्त के लिये स्वर में अधोरेखा दी जाती है। जैसे-अग्निः । स्वरित के लिये
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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