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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(पारायण) जो आदि से लेकर अन्त तक निरन्तर वेद का अध्ययन करता है वह-पारायणिक छात्र (शिष्य)। (तुरायण) जो संवत्सर-साध्य हविर्यज्ञ-विशेष का अनुष्ठान करता है वह-तौरायणिक यजमान। (चान्द्रायण) जो चान्द्रायण नामक तपोविशेष का अनुष्ठान करता है वह-चान्द्रायणिक तपस्वी।
सिद्धि-पारायणिकः । पारायण+अम्+ठञ् । पारायण+इक। पारायणिक+सु। पारायणिकः।
यहां द्वितीया-समर्थ पारायण' शब्द से वर्तयति-अर्थ में प्रागवतेष्ठ' (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक्' आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-तौरायणिकः, चान्द्रायणिकः।
विशेष: (१) पारायण-वैदिक शाखा-ग्रन्थ या छन्दों को कण्ठस्थ करने की प्रथा थी। कण्ठाग्र करनेवाले विद्वान् श्रोत्रिय कहलाते थे। संहितापाठ (निर्भुज), पादपाठ (प्रतण्ण), क्रमपाठ आदि कई प्रकार से वैदिक मन्त्रों का सस्वर पाठ करना वैदिक 'पारायण' कहलाता था। नियमानुसार पारायण करनेवाला पारायणिक होता था। श्रावणी या भाद्रपद पूर्णिमा को उपाकर्म करने के बाद साढ़े चार महीने तक वेद का पारायण किया जाता था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २८७)।
(२) तुरायण-तुरायण इष्टि करनेवाला यजमान तौरायणिक कहलाता था। पौर्णमास इष्टि के आधार पर ही फेर-फार करके तुरायण किया जाता था। शांखायन ब्राह्मण में इसे स्वर्गकाम व्यक्ति का यज्ञ कहा है (स एव स्वर्गकामस्य यज्ञ: ४११, आरण्यक पर्व १३ ।२१)। कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार (२४।७।१-८) तुरायण सत्र वैशाख शुक्ल या चैत्र शुक्ल पंचमी को आरम्भ करके एक वर्ष तक चलता था (संवत्सरं यजते)। इसे द्वादशाह की विकृति मानते थे (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३६२) ।
(३) चान्द्रायण-चन्द्रमा की तिथियों पर आधारित एक मास तक चलनेवाला व्रत।
आपन्नार्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः (ठ)
(१) संशयमापन्नः ७२। प०वि०-संशयम् २।१ आपन्न: १।१। अनु०-तत्, ठञ् इति चानुवर्तते । अन्वय:-तत् संशयाद् आपन्नो यथाविहितं ठञ् ।
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