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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थात् संशय-शब्दात् प्रातिपदिकाद् आपन्न इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-संशयमापन्न:=प्राप्त: सांशयिक: स्थाणुः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (संशयम्) संशय प्रातिपदिक से (आपन्न:) प्राप्त हुआ, अर्थ में (ठ) यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-संशय को आपन्न प्राप्त हुआ-सांशयिक स्थाणु (ठूठ), कि यह पुरुष है अथवा स्थाणु है।
सिद्धि-सांशयिकः । संशय+अम्+ठञ् । सांशय्+इक । सांशयिक+सु । सांशयिकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ 'संशय' शब्द से आपन्न (प्राप्त) अर्थ में प्राग्वतेष्ठ (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक्’ आदेश, अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
विशेषः (१) गोतम मुनि ने न्यायशास्त्र में संशय का यह लक्षण किया है'समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशयः' (१।२३) अर्थात्-समान और अनेक धर्मों की उपपत्ति-उपलब्धि होने से, परस्पर विरुद्ध सिद्धान्त के ज्ञान से, उपलब्धि और अनुपलब्धि की अव्यवस्था से जो विशेष की अपेक्षावाला अनिश्चयात्मक जो ज्ञान है वह संशय' कहाता है।
(२) यद्यपि द्वे अपि कर्तृकर्मणी संशयमापन्ने, तथापि यद्विषयक: संशयस्तत्रैव प्रत्ययो भवति, न कर्तरि पुरुषेऽनभिधानात्' (इति पदमजाँ पण्डितहरदत्तमिश्रः)। अर्थात् यद्यपि कर्ता और कर्म दोनों ही संशयभाव को प्राप्त हैं एक संशय का कर्ता है और संशय कर्म है किन्तु जो संशय का विषय है उस स्थाणु में ही प्रत्ययविधि होती है, कर्ता पुरुष में नहीं क्योंकि ऐसा कोई प्रयोग दिखाई नहीं देता है।
गच्छति-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः (ठञ्)
(१) योजनं गच्छति।७३। प०वि०-योजनम् २१ गच्छति क्रियापदम् । अनु०-तत्, ठञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तद् योजनाद् गच्छति ठञ् ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थाद् योजनशब्दात् प्रातिपदिकाद् गच्छतीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं ठञ् प्रत्ययो भवति ।
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