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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(छ) स्थालीबिल-पतीली के मुख को जो प्राप्त कर सकते हैं वे-स्थालीबिलीय तण्डुल (चावल)। (यत्) स्थालीबिल्य तण्डुल (चावल)। भोजन के लिये पकाने योग्य चावल।
सिद्धि-(१) स्थालीबिलीयाः । स्थालीबिल+अम्+छ। स्थालीबिल+ईय। स्थालीबिलीय+जस् । स्थालीबिलीयाः ।
___ यहां द्वितीया-समर्थ स्थालीबिल' शब्द से अर्हति अर्थ में इस सूत्र से 'छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है।
(२) स्थालीबिल्याः। यहां द्वितीया-समर्थ स्थालीबिल' शब्द से अर्हति-अर्थ में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (७।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। घः+खञ्
(6) यज्ञविंग्भ्यां घखौ।७०। प०वि०-यज्ञ-ऋत्विग्भ्याम् ५।२ घ-खजौ ११ ।
स०-यज्ञश्च ऋत्विक् च तौ यज्ञविजौ, ताभ्याम्-यज्ञविंग्भ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । घश्च खञ् च तौ घखौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) ।
अनु०-तत्, अर्हति इति चानुवर्तते । अन्वय:-तद् यज्ञविंग्भ्याम् अर्हति घखत्रौ।।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थाभ्यां यज्ञविंग्भ्यां प्रातिपदिकाभ्याम् अर्हतीत्यस्मिन्नर्थे यथासंख्यं घखञौ प्रत्ययौ भवत: ।
उदा०-(यज्ञ:) यज्ञमर्हति-यज्ञियो ब्राह्मण: (घ:)। यज्ञकर्मानुष्ठातुमर्हतीत्यर्थः । (ऋत्विक्) ऋत्विजमर्हति-आविंजीनो ब्राह्मणः । ऋत्विम् भवितुमर्हतीत्यर्थः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (यज्ञविंग्भ्याम्) यज्ञ, ऋत्विक प्रातिपदिकों से (अर्हति) कर सकता है, अर्थ में यथासंख्य (घखजौ) घ और खञ् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(यज्ञ) यज्ञ-कर्म का जो अनुष्ठान कर सकता है वह-यज्ञिय ब्राह्मण विद्वान् (घ)। (ऋत्विक्) जो ऋत्विक् बन सकता है वह-आर्खिजीन ब्राह्मण विद्वान् (खञ्)।
सिद्धि-(१) यज्ञियः । यज्ञ+अम्+घ । य+इय। यज्ञिय+सु। यज्ञियः ।
यहां द्वितीया-समर्थ 'यज्ञ' शब्द से अर्हति-अर्थ में इस सूत्र से 'घ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है।
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