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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां प्रथमा-समर्थ, परिमाणवाची, 'पञ्चन' शब्द से षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में इस सूत्र से 'डति' प्रत्यय निपातित है। प्रत्यय के डित् होने से वा०-डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से 'पञ्चन्' के टि-भाग (अन्) का लोप होता है। ऐसे ही 'दश' शब्द से दशत्।
(२) पञ्चकः । पञ्चन्+जस्+कन्। पञ्च+क। पञ्चक+सु। पञ्चकः।
यहां प्रथमा-समर्थ, परिमाणवाची ‘पञ्चन्' शब्द से षष्ठी-समर्थ के अर्थ में विकल्प पक्ष में 'संख्याया अतिशदन्ताया: कन्' (५।१।२२) से कन्' प्रत्यय है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य (८१२७) से अंग के नकार का लोप होता है। ऐसे ही दश शब्द से-दशकः।
अञ् (छान्दसः)
(६) सप्तनोऽञ् छन्दसि।६०। प०वि०-सप्तन: ५।१ अञ् ११ छन्दसि ७।१। अनु०-तत्, अस्य, परिमाणम्, वर्ग इति चानुवर्तते । अन्वय:-छन्दसि तत् सप्तनोऽस्याऽञ् परिमाणम् ।
अर्थ:-छन्दसि विषये तद् इति प्रथमासमर्थात् सप्तन्-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति, वर्गेऽभिधेये ।
उदा०-सप्त परिमाणमस्य वर्गस्य-साप्तो वर्ग: । ‘सप्त साप्तान्यसृजन्' (तुतै०सं० ५।४।७।५)।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ (सप्तन:) सप्तन् प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है (वर्ग) यदि वहां वर्ग अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-सप्त परिमाण है इस वर्ग का यह-साप्त वर्ग। सप्त साप्तान्यसृजन् (तुन्तै०सं० ५१४१७१५)।
सिद्धि-साप्त: । सप्त+जस्+अञ् । साप्त+अ। साप्त्+सु। साप्तः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, परिमाणवाची सप्तन्' शब्द से षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में तथा वर्ग अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से 'अन्' प्रत्यय है। 'नस्तद्धिते' (६:४।१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप और तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है।
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