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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः अनु०-तत्, हरति, वहति, आवहति इति चानुवर्तते । अन्वय:-तद् वस्नद्रव्याभ्यां हरति, वहति, आवहति ठन्कनौ।
अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थाभ्यां वस्नद्रव्याभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां हरति, वहति, आवहति इत्येतेष्वर्थेषु यथाविहितं ठन्कनौ प्रत्ययौ भवतः।
उदा०-(वस्नम्) वस्नं हरति, वहति, आवहति वा-वस्निको वणिक् (ठन्) । (द्रव्यम्) द्रव्यं हरति, वहति, आवहति वा-द्रव्यको वणिक् (कन्) ।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (वस्नद्रव्याभ्याम्) वस्न और द्रव्य प्रातिपदिकों से (हरति, वहति, आवहति) हरण करता है, उठाता है और लाता है अर्थों में यथासंख्य (ठन्कनौ) ठन् और कन् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-वस्न मूल्य (पूंजी) को जो हरण करता है, उठाता है वा लाता है वह-वस्निक व्यापारी। द्रव्य-माल को जो हरण करता है, उठाता है-ढोता है वा लाता है वह-द्रव्यक व्यापारी।
सिद्धि-(१) वस्निकः । वस्न+अम्+ठन्। वस्न्+इक । वस्निक+सु । वस्निकः ।
यहां द्वितीया-समर्थ वस्न' शब्द से हरति-आदि अर्थों में इस सूत्र से ठन्' प्रत्यय है।
(२) द्रव्यकः । द्रव्य+अम्+कन्। द्रव्य+क। द्रव्यक+सु । द्रव्यकः । यहां प्रथमा-समर्थ 'द्रव्य' शब्द से हरति-आदि अर्थों में कन्' प्रत्यय है।
विशेष: “एक व्यापारी काशी से तक्षशिला तक जाकर अपना माल बेचने के लिये घर से निकलता है। जब वह काशी से चला तो काशी के व्यापारियों की भाषा में वह-'हरति=देशान्तरं प्रापयति' वह माल लादकर चलता है, इस अर्थ में 'द्रव्यक' कहलाता था। मार्ग में वह मथुरा पहुंचा तो मथुरा के व्यापारी उसे वहति-अर्थ में 'द्रव्यक' कहते थे अर्थात् जो उनके नगर से होता हुआ माल ले जा रहा है। वही वणिक् जब अपने गन्तव्य स्थान तक्षशिला में पहुंचता है तब वहां के व्यापारी उसे आवहति-अर्थ में 'द्रव्यक' कहते थे अर्थात् वह हमारे नगर में माल लेकर आ रहा है। इस प्रकार वह माल बेचकर पूंजी कमाता हुआ चलता था।
तक्षशिला में बिक्री समाप्त करके वह अपनी पूंजी लेकर काशी की ओर लौटता था तब वह 'वस्निक' कहलाने लगता था। तक्षशिला के व्यापारी हरति-अर्थ में उसे वस्निक' कहते थे अर्थात् वह बिक्री से मिली हुई आय जिसमें पूंजी और लाभ दोनों शामिल थे, ले जा रहा है (यहां भी हरति देशान्तरं प्रापयति)। मार्ग में मथुरा के व्यापारी उसे वहति-अर्थ में वस्निक' कहते थे अर्थात् वह बिक्री का द्रव्य लेकर उनके नगर से जा रहा
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