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________________ ४८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सo-वंश आदिर्येषां ते वंशादय:, तेभ्य:-वंशादिभ्यः (बहुव्रीहि:)। अन्वय:-तद् वंशादिभ्यो भाराद् हरति, वहति, आवहति यथाविहितं प्रत्ययः। अर्थ:-तद् इति द्वितीयासमर्थाद् हरति, वहति, आवहति इत्येतेष्वर्थेषु यथाविहितं प्रत्ययो भवति।। उदा०-वंशभारं हरति, वहति, आवहति वा-वांशभारिकः । कौटजभारिक: । बाल्वजभारिक:, इत्यादिकम् । हरति=देशान्तरं प्रापयति चोरयति वा । वहति-उत्क्षिप्य धारयति । आवहति-आनयति। वंश। कुटज। बल्वज। मूल। अक्ष। स्थूणा। अश्मन्। अश्व । इक्षु । खट्वा । इति वंशादयः ।। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) द्वितीया-समर्थ (वंशादिभ्यः) वंश-आदि शब्दों से परे विद्यमान (भारात्) भार प्रातिपदिक से (हरति) ले जाता है/ चुराता है (वहति) उठाता है (आवहति) लाता है अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है। उदा०-वंशभार (बांस का गट्ठा) को जो हरण करता है, उठाता है अथवा लाता है वह-वांशभारिक। कुटजभार (कुटज ओषधीवृक्ष का गट्ठा) को जो हरण करता है, उठाता है अथवा लाता है वह-कौटजभारिक । बल्वजभार (घासविशेष का गट्ठा) को जो हरण करता है, उठाता है अथवा लाता है वह-बाल्वजभारिक। सिद्धि-वांशभारिकः । वंशभार+अम्+ठञ्। वांशभार+इक। वांशभारिक+सु। वांशभारिकः। यहां द्वितीया-समर्थ 'वंशभार' शब्द से हरति-आदि अर्थों में प्राग्वतेष्ठ (५।१।१८) से यथाविहित ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-कौटजभारिक:, बाल्वजभारिक: आदि। ठन्+कन् (२) वस्नद्रव्याभ्यां ठन्कनौ ।५०। प०वि०-वस्न-द्रव्याभ्याम् ५ ।२ ठन्-कनौ १।२। स०-वस्नं च द्रव्यं च ते वस्नद्रव्ये, ताभ्याम्-वस्नद्रव्याभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। ठन् च कन् च तौ-ठन्कनौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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