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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४५ (३) पट आदि के उपादानमूल (सूत आदि की लागत) से अतिरिक्त द्रव्य की प्राप्ति लाभ कहाता है। (४) रक्षा की दृष्टि से निश्चित किया गया राजभाग शुल्क' कहाता है। (५) उत्कोच-घूस, रिश्वत को उपदा' कहते हैं।
उदा०-पञ्च-पांच कार्षापण इस व्यवहार में वृद्धि, आय, लाभ, शुल्क वा उपदा रूप में दिये जाते हैं यह-पञ्चक। सप्त सात कार्षापण इस व्यवहार में वृद्धि आदि रूप में दिये जाते हैं यह-सप्तक । शत-सौ कार्षापण इस व्यवहार में वृद्धि आदि रूप में दिये जाते हैं यह-शत्य अथवा शतिक। सहस्र हजार कार्षापण इस व्यवहार में वृद्धि आदि रूप में दिये जाते हैं यह-साहस्र।
सिद्धि-(१) पञ्चकः । यहां प्रथमा-समर्थ 'पञ्च' शब्द से अस्मिन् अर्थ में तथा वृद्धि-आदिकं दीयते' अभिधेय में संख्याया अतिशदन्तया: कन्' (५।१।२२) से यथाविहित कन्' प्रत्यय है। ऐसे ही-सप्तकः ।
(२) शत्य:/शतिकः । यहां शत' शब्द से पूर्वोक्त अर्थ में 'शताच्च ठन्यतावशते (५।१।२१) से क्रमश: यथाविहित यत् और ठन् प्रत्यय हैं।
(३) साहस्रः। यहां सहस्र' शब्द से पूर्वोक्त अर्थ में 'शतमानविंशतिकसहस्रवसनादण्’ (५ ।१ ।२७) से यथाविहित 'अण्' प्रत्यय है।
विशेष: सूत्रपाठ में वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा:' पद बहुवचनान्त है और दीयते' पद एकवचनान्त है। यहां वृद्धि आदि प्रत्येक एकवचनान्त रूप पद के साथ अन्वय के लिये 'दीयते' पद एकवचनान्त रूप में पढ़ा गया है। ठन्
(२) पूरणार्धाट्ठन्।४७। प०वि०-पूरण-अर्धात् ५।१ ठन् ११ ।
स०-पूर्यते येनार्थेन स पूरण: । पूरणश्च अर्धं च एतयो: समाहार: पूरणार्धम्, तस्मात्-पूरणार्धात् (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-तत्, अस्मिन्, वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा:, दीयते इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत् पूरणार्धाद् अस्मिन् ठन्, वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा दीयते।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् पूरणवाचिन: शब्दाद् अर्धशब्दात् प्रातिपदिकाच्चास्मिन्नित्यर्थे ठन् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थ वृद्ध्यादिकं चेत् तद् दीयते।
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