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________________ ४४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-पात्र का वाप-पात्रिक क्षेत्र (खेत) । पात्र का वाप-पात्रिकी क्षेत्रभक्ति (क्यारी)। सिद्धि-पात्रिकम् । पात्र+डस्+ष्ठन्। पान्+इक। पात्रिक+सु । पात्रिकम् । यहां षष्ठी-समर्थ 'पात्र' शब्द से वाप-अर्थ में इस सूत्र से ष्ठन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के नित् होने से नित्यादिनित्यम्' (६।१।९४) से आधुदात्त स्वर होता है-पात्रिकम् । प्रत्यय के पित् होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से डीष् प्रत्यय होता है-पात्रिकी क्षेत्रभक्ति: । पात्र आढक (४ प्रस्थ का कटोरा-ढईया) अस्मिन् दीयते-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितं प्रत्ययः(१) तदस्मिन् वृद्धयायलाभशुल्कोपदा दीयते।४६। प०वि०-तत् १ ।१ अस्मिन् ७१ वृद्धि-आय-लाभ-शुल्क-उपदा: १।३ दीयते क्रियापदम्। स०-वृद्धिश्च आयश्च लाभश्च शुल्कश्च उपदा च ता वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) । अन्वयः-तत् प्रातिपदिकाद् अस्मिन् यथाविहितं प्रत्ययो वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा दीयते। अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् प्रातिपदिकाद् अस्मिन्निति सप्तम्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं वृद्ध्यादिकं चेत् तद् दीयते। (१) यदधर्मर्णेन उत्तमार्णाय मूलधनातिरिक्तं देयं तत्-वृद्धि। (२) ग्रामादिषु स्वामिग्राह्यो भाग:-आय: । (३) पटादीनामुपादानमूलादतिरिक्तं द्रव्यम्-लाभ: । (४) रक्षानिर्देशो राजभाग:-शुल्क: । (५) उत्कोच:-उपदा। उदा०-पञ्च अस्मिन् वृद्धिर्वाऽऽयो वा लाभो वा शुल्को वा उपदा वा दीयते-पञ्चकः । सप्तकः । शत्य: । शतिक: । साहस्रः। आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्मिन्) सप्तमी-अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा दीयते) जो प्रथमासमर्थ है यदि वह वृद्धि, आय, लाभ, शुल्क और उपदा रूप में दिया जाता हो। (१) जो कर्जदार के द्वारा साहूकार को मूलधन के अतिरिक्त राशि दी जाती है वह वृद्धि' कहाती है। (२) ग्राम आदि में ग्रामाधिपति के द्वारा ग्राह्य भाग 'आय' कहाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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