________________
४२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(सर्वभूमि) सर्वभूमि पर जो विदित (प्रसिद्ध) है वह-सार्वभौम (अण्) । (पृथिवी) पृथिवी पर जो विदित है वह-पार्थिव (अञ्)।
सिद्धि-(१) सार्वभौम: । यहां षष्ठी-समर्थ 'सर्वभूमि' शब्द से विदित अर्थ में इस सूत्र से 'अण्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(२) पार्थिवः । यहां षष्ठी-समर्थ पृथिवी' शब्द से विदित अर्थ में 'अञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ठञ्
(२) लोकसर्वलोकाट्ठञ् ।४३। प०वि०-लोक-सर्वलोकात् ५।१ ठञ् १।१।
स०-लोकश्च सर्वलोकाश्च एतयो: समाहारो लोकसर्वलोकम्, तस्मात्-लोकसर्वलोकात् (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-तत्र, विदित इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र लोकसर्वलोकाद् विदितष्ठञ् ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थाभ्यां लोकसर्वलोकाभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां विदित इत्यस्मिन्नर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(लोक:) लोके विदित:-लौकिक: । (सर्वलोकः) सर्वलोकेषु विदित:-सार्वलौकिकः।
आर्यभाषा: अर्थ- (तत्र) सप्तमी-समर्थ (लोकसर्वलोकात्) लोक और सर्वलोक प्रातिपदिकों से (विदित:) प्रसिद्ध अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-(लोक) लोक में जो विदित है वह-लौकिक। (सर्वलोक) सब लोकों में जो विदित है वह-सार्वलौकिक।
सिद्धि-(१) लौकिक: । लोक+डि+ठञ् । लौक्+इक। लौकिक+सु। लौकिकः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'लोक' शब्द से विदित अर्थ में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है।
(२) सार्वलौकिकः । सर्वलोक+सुप्+ठञ् । सार्वलौक्+इक। सार्वलौकिक+सु । सार्वलौकिकः।
___ यहां सप्तमी-समर्थ सर्वलोक' शब्द से विदित अर्थ में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। 'अनुशतिकादीनां च' (७ ।३।२०) से अंग को उभयपदवृद्धि होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org