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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां दक्षिण और ईर्म शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। दक्षिणेम' शब्द से इस सूत्र से लुब्धयोग अर्थ में समासान्त अनिच् प्रत्यय निपातित है। शेष कार्य कल्याणधर्मा (५।४।१२४) के समान है।
इच्
(१५) इच् कर्मव्यतिहारे ।१२७। प०वि०-इच् ११ कर्मव्यतिहारे ७।१।
स०-कर्म क्रिया। व्यतिहार: विनिमयः। कर्मणो व्यतिहार:कर्मव्यतिहार:, तस्मिन्-कर्मव्यतिहारे (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ इति चानुवर्तते। अन्वय:-कर्मव्यतिहारे बहुव्रीहौ प्रातिपदिकात् समासान्त इच् ।
अर्थ:-कर्मव्यतिहारेऽर्थे बहुव्रीहौ समासे च वर्तमानात् प्रातिपदिकात् समासान्त इच् प्रत्ययो भवति । अत्र तत्र तेनेदमिति सरूपे' (२।२।२७) इत्यनेन सूत्रेण विहितो बहुव्रीहिसमासो गृह्यते।
उदा०-केशेषु केशेषु गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्तम्-केशाकेशि । कचाकचि। दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहृत्य इदं युद्धं प्रवृत्तम्-दण्डादण्डि। मुसलामुसलि।
आर्यभाषा: अर्थ-(कर्मव्यतिहारे) क्रिया के विनिमय बदलना अर्थ में और (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में विद्यमान प्रातिपदिक से (समासान्तः) समास का अवयव (इच्) इच् प्रत्यय होता है। यहां तत्र तेनेदमिति सरूपे' (२।२।२७) इस सूत्र से विहित बहुव्रीहि समास का ग्रहण किया जाता है।
उदा०-एक दूसरे के केशों में हाथ डालकर जो युद्ध प्रवृत्त हुआ वह-केशाकेशि। कचा-कचाकचि। कच-केश। एक दूसरे पर दण्डों से प्रहार करके जो युद्ध प्रवत्त हुआ वह-दण्डादण्डि। एक-दूसरे पर मुसलों से प्रहार करके जो युद्ध प्रवृत्त हुआ वह-मुसलामुसलि।
सिद्धि-केशाकेशि। केश+सुप्+केश+सुप्। केश+केश+इच् । केशा केश्+ई। केशाकेशि+सु । केशाकेशि+० । केशाकेशि ।
यहां सप्तम्यन्त दो सरूप केश पदों का तत्र तेनेदमिति सरूपे' (२।२।२७) से बहुव्रीहि समास है। यहां कर्मव्यतिहार अर्थ में विद्यमान केशकेश' शब्द से इस सूत्र से समासान्त इच्' प्रत्यय है। 'अन्येषामपि दृश्यते' (६ ।३।१३७) से पूर्वपद को दीर्घ होता है। इच् कर्मव्यतिहारे' का 'तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च' (२।११७) में पाठ होने से इच्
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