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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४८१ (तण) तृण-घास है जम्भ-खाना जिसका वह-तृणजम्भा पशु। (सोम) सोम ओषधि है जम्भ-खान-पान जिसका वह-सोमजम्भा ऋषि।
जब जम्भ' शब्द का दन्तविशेष (जाड़) अर्थ होता है तब ऐसे विग्रह किया जाता है-तृण के समान जम्भ जाड़ है जिसका वह-तृणजम्भा। सोम ओषधि के समान जम्भ है जिसका वह-सोमजम्भा।
सिद्धि-सुजम्भा। सु+सु+जम्भ+सु। सु+जम्भ+अनिच् । सु+जम्भ+अन् । सुजम्भन्+सु। सुजम्भान्+० । सुजम्भा।
यहां सु और जम्भ शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। 'सुजम्भ' शब्द से इस सूत्र से 'अनिच्' प्रत्यय निपातित है। शेष कार्य कल्याणधर्मा' (५।४।१२४) के समान है। ऐसे ही-हरितजम्भा, तृणजम्भा, सोमजम्भा। अनिच् (निपातनम्)
(१४) दक्षिणेर्मा लुब्धयोगे।१२६ । प०वि०-दक्षिणेर्मा ११ लुब्ध-योगे ७।१।।
स०-लुब्ध: व्याध: । लुब्धस्य योग:-लुब्धयोगः, तस्मिन्-लुब्धयोगे (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अनिच् इति चानुवर्तते । अन्वय:-बहुव्रीहौ दक्षिणेर्मा समासान्तोऽनिच्, लुब्धयोगे।
अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे 'दक्षिणेर्मा' इत्यत्र समासान्तोऽनिच् प्रत्ययो निपात्यते, लुब्धयोगे गम्यमाने।
उदा०-दक्षिणमीम यस्य स:-दक्षिणेर्मा मृगः। ईर्मम् व्रणम् । यस्य दक्षिणमङ्गं व्याधेन व्रणितं स मृगो ‘दक्षिणेर्मा' इति कथ्यते।
आर्यभाषा: अर्थ- (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (दक्षिणेर्मा) 'दक्षिणेर्मा' इस पद में (समासान्तः) समास का अवयव (अनिच्) अनिच् प्रत्यय निपातित है (लुब्धयोग) यदि वहां लुब्ध शिकारी के योग अर्थ की प्रतीति हो।
उदा०-दक्षिण अङ्ग ईर्म-घायल है जिसका वह दक्षिणेर्मा मृग। जिसका दक्षिण अंग शिकारी ने घायल कर दिया है वह मृग दक्षिणेर्मा' कहलाता है।
सिद्धि-दक्षिणेर्मा । दक्षिण+सु+ईर्म+सु। दक्षिण+ईर्म+अनिच् । दक्षिणेम्+अन् । दक्षिणेर्मन्+सु । दक्षिणेर्मान्+सु । दक्षिणेन्+ि० । दक्षिणेर्मा।
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