SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां कल्याण और धर्म शब्दों का पूर्ववत् बहुव्रीहि समास है। कल्याणधर्म' शब्द से इस सूत्र से समासान्त 'अनिच्' प्रत्यय है। सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ' (६।४।८) से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ होता है। हल्ल्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से नकार का लोप होता है। ऐसे ही-वेदधर्मा, सत्यधर्मा। यहां केवलात्' पद का अभिप्राय यह है कि केवल एक पद से परे धर्मान्त प्रातिपदिक से यह अनिच् प्रत्यय होता है, अनेक पदों से उत्तर धर्मान्त शब्द से नहीं। जैसे-परम: स्वो धर्मो यस्य स:-परमस्वधर्मः । अनिच् (निपातनम्) (१३) जम्भा सुहरिततृणसोमेभ्यः ।१२५ । प०वि०-जम्भा ११ सु-हरित-तृण-सोमेभ्य: ५।३ । स०-सुश्च हरितं च तृणं च सोमश्च ते सुहरिततृणसोमा:, तेभ्य:सुहरिततृणसोमेभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-समासान्ता:, बहुव्रीहौ, अनिच् इति चानुवर्तते। अन्वय:-बहुव्रीहौ सुहरिततृणसोमेभ्यो जम्भा समासान्तोऽनिच् । अर्थ:-बहुव्रीहौ समासे सुहरिततृणसोमेभ्यः परं 'जम्भा' इति पदं समासान्त-अनिच्प्रत्ययान्तं निपात्यते। जम्भशब्दोऽभ्यवहार्यवाची दन्तविशेषवाची च वर्तते। उदा०-(सुः) शोभनो जम्भो यस्य स:-सुजम्भा देवदत्तः । शोभनाभ्यवहार्य: शोभनादन्तो वा इत्यर्थः । (हरितम्) हरितं जम्भो यस्य स:-हरितजम्भ: । (तृणम्) तृणं जम्भो यस्य स:-तृणजम्भः। (सोम:) सोमो जम्भो यस्य स:-सोमजम्भ: । दन्तार्थे तु एवं विग्रहः क्रियते-तृणमिव जम्भो यस्य स:-तृणजम्भ: । सोम इव जम्भो यस्य स:-सोमजम्भः । आर्यभाषा: अर्थ-(बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (सुहरिततृणसोमेभ्यः) सु, हरित, तृण, सोम शब्दों से परे (जम्भा) जम्भा' इस पद में (समासान्तः) समास का अवयव (अनिच) अनिच् प्रत्यय निपातित है। जम्भ' शब्द अभ्यवहार्य खान-पान और दन्तविशेष (जाड़) का वाचक है। उदा०-(सु) सु-अच्छा है जम्भ खान-पान जिसका वह-सुजम्भा देवदत्त। (हरित) हरित-हरी सब्जी आदि है जम्भ खाना जिसका वह-हरितजम्भा देवदत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy