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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
प्रत्ययस्य लुक्-विकल्पः
(१३) बिस्ताच्च । ३१ ।
प०वि० - बिस्तात् ५ | १ च अव्ययपदम् । अनु०-आ-अर्हात्, द्विगो:, लुक्, विभाषा, द्वित्रिपूर्वात् इति चानुवर्तते । अन्वयः-यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् द्वित्रिपूर्वाद् द्विगोर्बिस्ताच्च यथाविहितं प्रत्ययस्य विभाषा लुक् ।
अर्थः-यथायोगं विभक्तिसमर्थाद् द्वित्रिपूर्वाद् द्विगुसंज्ञकाद् बिस्तशब्दात् प्रातिपदिकाच्च यथाविहितं प्रत्ययस्य विकल्पेन लुग् भवति ।
उदा०-(द्विपूर्वम्) द्विबिस्तेन क्रीतम् - द्विबिस्तम् (लुक्) । द्विबैस्तिकम् (ठञ्) । (त्रिपूर्वम्) त्रिबिस्तेन क्रीतम् - त्रिबिस्तम् ( लुक् ) । त्रिबैस्तिकम् (ठञ्) ।
आर्यभाषाः अर्थ-यथायोग विभक्ति - समर्थ (द्वित्रिपूर्वात्) द्वि-त्रि पूर्ववाले (द्विगोः) द्विगु-संज्ञक (बिस्तात्) बिस्त प्रातिपदिक से (च ) भी यथाविहित प्रत्यय का ( विभाषा) विकलप से (लुक्) लोप होता है।
उदा०-1
- (द्विपूर्व) द्विबिस्त = दो बिस्तों से क्रीत - द्विबिस्त ( लुक्) । द्विबैस्तिक ( ठञ् )। (त्रिपूर्व) त्रिबिस्त = तीन बिस्तों से क्रीत-त्रिबिस्त ( लुक्) । त्रिबैस्तिक ( ठञ् ) ।
सिद्धि-(१) द्विबिस्तम् । द्विबिस्त+टा+ठञ् । द्विबिस्त+० । द्विबिस्त+सु । द्विबिस्तम् । यहां तृतीया-समर्थ, द्वि-पूर्वक, द्विगुसंज्ञक 'द्विबिस्त' शब्द से आ-आर्हीय क्रीत अर्थ में 'प्राग्वतेष्ठञ्' (418 | १८ ) से 'ठञ्' प्रत्यय होता है और इस सूत्र उक्त है । ऐसे ही - त्रिबिस्तम् ।
(२) द्विबैस्तिकम् | यहां 'द्विबिस्त' शब्द से पूर्ववत् 'ठञ्' प्रत्यय है । 'संख्यायाः संवत्सरसंख्यस्य च' (७/३/१५) से उत्तरपद - वृद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। यहां विकल्प पक्ष में 'ठञ्' प्रत्यय का लुक् नहीं होता है। ऐसे ही - त्रिबैस्तिकम् ।
विशेष: बिस्त- अमरकोष में 'बिस्त' को कर्ष या अक्ष का पर्याय कहा है, जो स्वर्ण तोलने के काम में आता था । चरक में कर्ष, सुवर्ण और अक्ष पर्याय है । अत एव 'बिस्त' सुवर्ण का ही पर्याय ज्ञात होता है, जो तोल में ८० अस्सी रत्ती होता था (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० २४३) ।
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