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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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उदा०- (अव्ययीभावः) राजनि अधि- अधिराजम् । राज्ञः समीपम्उपराजम्। (द्विगुः) द्वयोः पुरो: समाहारः- द्विपुरी । तिसृणां पुरां समाहारःत्रिपुरी । ( द्वन्द्वः ) कोशश्च निषच्च एतयोः समाहारः - कोशनिषदम्, कोशनिषदमस्या अस्तीति - कोशनिषदिनी । स्रक् च त्वक् च एतयोः समाहारः स्रुक्त्वचम्, स्रुक्त्वचमस्या अस्तीति स्रुक्त्वचिनी । ( तत्पुरुषः ) विगता धू:-विधुरः । प्रगता धूः - प्रधुरः । ( बहुव्रीहिः) उच्चैर्धूरस्य- उच्चैर्धुरः । नीचैर्धूरस्य-नीचैर्धृरः ।
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आर्यभाषा: अर्थ - (समासान्ताः ) समासान्ता' इसका इस पाद की समाप्ति तक अधिकार है। इससे आगे कहे जानेवाले प्रत्यय समासान्त-अ त- अर्थात् समास के अवयव होते हैं, ऐसा जानें। इसका अव्ययीभाव, द्विगु द्वन्द्व, तत्पुरुष और बहुव्रीहि संज्ञा बने रहना प्रयोजन है ।
उदा०- ( अव्ययीभाव) राजा के विषय में अधिराज । राजा के समीप - उपराज । (द्विगु) दो पुरियों का समाहार-द्विपुरी। तीन पुरियों का समाहार- - त्रिपुरी । (द्वन्द्व ) कोश = सन्दूक और निषत् = खाट का समाहार- कोशनिषद, प्रशंसनीय कोश निषद है इसके यह-कोशनिषदिनी नारी । स्रक् = माला और त्वक्= छाल का समाहार - स्रुक्त्वच, प्रशंसनीय स्रक्त्वच है इसकी यह स्रक्त्वचिनी नारी । (तत्पुरुष) विगत धूः (जुआ) विधुर । प्रगत = प्रकृष्ट धूः - जुआ-प्रधुर । ( बहुवीहि ) ऊंची है धूः = जूआ इसका यह उच्चैर्धुर । नीची है धूः = जुआ इसका यहनीचैधुर ।
सिद्धि - (१) अधिराजम् । अधि+सु+राजन्+ङि । अधि+राजन्। अधिराजन्+टच् । अधिराज्०+अ। अधिराज+सु । अधिराज+अम् । अधिराजम् ।
यहां अधि और राजन् सुबन्तों का 'अव्ययं विभक्तिसमीप०' (२1१1६) से अव्ययीभाव समास है। 'अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्य:' ( ५ |४ |१०७ ) की अनुवृत्ति में 'अनश्च' (५ 1४1९०८) से समासान्त 'टच्' प्रत्यय होता है। 'नस्तद्धिते' (६/४/१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप होता है । 'टच्' प्रत्यय के समासान्त = समास का अवयव होने से 'नाव्ययीभावदतोऽम्त्वपञ्चम्याः' (२।४।८३) से 'सु' का लुक् नहीं होता है अपितु उसे 'अम्' आदेश हो जाता है। ऐसे ही उपराजम् ।
(२) द्विपुरी । द्वि+औ+पुर्+औ । द्विपुर्+अ । द्विपुर+ ङीप् । द्विपुरी+सु। द्विपुरी+0 /
द्विपुरी ।
यहां द्वि और पुर् सुबन्तों का 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारें (218148) से समानाधिकरण तत्पुरुष समास होता है और संख्यावाची शब्द पूर्वपद में होने से 'संख्यापूर्वी द्विगु: ' (२1१/५२ ) से द्विगु संज्ञा होती है । 'ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे (५।४/७४) से
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