SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा० - सुख करता है - सुखा करता है। स्वामी के चित्त की आराधना करता है। प्रिय करता है - प्रिया करता है। स्वामी के चित्त के बर्ताव करता है । अनुकूल ४२२ सिद्धिइ-सुखा करोति। यहां कृञ् के योग में और आनुलोम्य अर्थ में विद्यमान 'सुख' शब्द से इस सूत्र से 'डाच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही प्रिया करोति । प्रातिलोम्यार्थप्रत्ययविधिः डाच् (१) दुःखात् प्रातिलोम्ये । ६४ । प०वि०-दुःखात् ५ ।१ प्रातिलोम्ये ७ । १ । प्रातिलोम्यम् = प्रतिकूलता, स्वाम्यादीनां चित्तपीडनम् । अनु० - डाच्, कृञ इति चानुवर्तते । अन्वयः-कृञ्योगे प्रातिलोम्ये च दुःखाड् डाच् । अर्थः-कृञ्योगे प्रातिलोम्ये चार्थे वर्तमानाद् दुःखशब्दात् प्रातिपदिकाड् डाच् प्रत्ययो भवति। उदा०-दु:खं करोति-दु:खा करोति भृत्यः । स्वामिनश्चित्तं पीडयतीत्यर्थः । आर्यभाषाः अर्थ- (कृञः) कृञ् के योग में और ( प्रातिलोम्ये) प्रतिकूलता अर्थ में विद्यमान (दुःखात्) दुःख प्रातिपदिक से (डाच्) डाच् प्रत्यय होता है। उदा० - दुःख करता है - दु:खा करता है । भृत्य = नौकर प्रतिकूल आचरण से स्वामी के चित्त को पीड़ा देता है। सिद्धिइ-दुःखा 'करोति। यहां 'कृञ्' के योग में और प्रातिलोम्य अर्थ में विद्यमान 'दुःख' शब्द से इस सूत्र से 'डाच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । पाकार्थप्रत्ययविधिः डाच् प०वि०-3 (१) शूलात् पाके । ६५ । - शुलात् ५ ।१ पाके ७ । १ । अनु० - डाच्, कृञ इति चानुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy