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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा० - सुख करता है - सुखा करता है। स्वामी के चित्त की आराधना करता है। प्रिय करता है - प्रिया करता है। स्वामी के चित्त के बर्ताव करता है ।
अनुकूल
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सिद्धिइ-सुखा करोति। यहां कृञ् के योग में और आनुलोम्य अर्थ में विद्यमान 'सुख' शब्द से इस सूत्र से 'डाच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही प्रिया करोति ।
प्रातिलोम्यार्थप्रत्ययविधिः
डाच्
(१) दुःखात् प्रातिलोम्ये । ६४ ।
प०वि०-दुःखात् ५ ।१ प्रातिलोम्ये ७ । १ । प्रातिलोम्यम् = प्रतिकूलता, स्वाम्यादीनां चित्तपीडनम् ।
अनु० - डाच्, कृञ इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-कृञ्योगे प्रातिलोम्ये च दुःखाड् डाच् ।
अर्थः-कृञ्योगे प्रातिलोम्ये चार्थे वर्तमानाद् दुःखशब्दात् प्रातिपदिकाड् डाच् प्रत्ययो भवति।
उदा०-दु:खं करोति-दु:खा करोति भृत्यः । स्वामिनश्चित्तं पीडयतीत्यर्थः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (कृञः) कृञ् के योग में और ( प्रातिलोम्ये) प्रतिकूलता अर्थ में विद्यमान (दुःखात्) दुःख प्रातिपदिक से (डाच्) डाच् प्रत्यय होता है।
उदा० - दुःख करता है - दु:खा करता है । भृत्य = नौकर प्रतिकूल आचरण से स्वामी के चित्त को पीड़ा देता है।
सिद्धिइ-दुःखा 'करोति। यहां 'कृञ्' के योग में और प्रातिलोम्य अर्थ में विद्यमान 'दुःख' शब्द से इस सूत्र से 'डाच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
पाकार्थप्रत्ययविधिः
डाच्
प०वि०-3
(१) शूलात् पाके । ६५ ।
- शुलात् ५ ।१ पाके ७ । १ ।
अनु० - डाच्, कृञ इति चानुवर्तते ।
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