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________________ ४२० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्व:)। अतिशयितं व्यथनम्-अतिव्यथनम्, तस्मिन्-अतिव्यथने (प्रादितत्पुरुषः)। अनु०-डाच्, कृञ इति चानुवर्तते। अन्वय:-कृञ्योगेऽतिव्यथने सपत्रनिष्पत्राड् डाच् । अर्थ:-कृयोगेऽतिव्यथने चार्थे वर्तमानाभ्यां सपत्रनिष्पत्राभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां डाच् प्रत्ययो भवति। उदा०-(सपत्रः) सपत्रं करोति-सपत्रा करोति मृगं व्याधः । सपत्रं शरं मृगस्य शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः । (निष्पत्र:) निष्पत्रं करोति-निष्पत्रा करोति मृगं व्याधः । मृगस्य शरीराच्छरमपरश्वार्थे निष्कामयतीत्यर्थः । आर्यभाषा: अर्थ-(कृञः) कृञ् के योग में और (अतिव्यथने) अत्यन्त पीडा देने अर्थ में विद्यमान (सपत्रनिष्पत्रात्) सपत्र, निष्पत्र प्रातिपदिकों से (डाच्) डाच् प्रत्यय होता है। उदा०-(सपत्र) शिकारी मृग को सपत्र करता है-सपत्रा करता है। शिकारी मृग के शरीर में पत्ते सहित बाण को प्रविष्ट करता है जिससे मृग को अत्यन्त पीडा होती है। (निष्पत्र) शिकारी मृग के शरीर को निष्पत्र करता है-निष्पत्रा करता है। शिकारी मृग के शरीर से पत्ते सहित बाण को दूसरी ओर निकालता है जिससे मृग को अत्यन्त पीडा होती है। सिद्धि-सपत्रा करोति । यहां कृञ् के योग में तथा अतिव्यथन अर्थ में सपत्र' शब्द से इस सूत्र से 'डाच्’ पत्र है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-निष्पत्रा करोति। निष्कोषणार्थप्रत्ययविधिः डाच (१) निष्कुलान्निष्कोषणे।६२। प०वि०-निष्कुलात् ५ १ निष्कोषणे ७।१। स०-निष्कोषणितमन्तरवयवानां कुलं यस्यात्-निष्कुलम्, तस्मात्निष्कुलात् (बहुव्रीहिः)। निष्कोषणम् निष्कर्षणम्, अन्तरवयवानां बहिर्निष्कासनमित्यर्थः। अनु०-डाच्, कृञ इति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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