________________
४१२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) उदकी भवति। यहां 'उदक' शब्द से पूर्ववत् चि' प्रत्यय करने पर 'अस्य च्वौ' (६।४।३४) से अंग के अकार को ईकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। साति-विकल्प:
(४) अभिविधौ सम्पदा च।५३। प०वि०-अभिविधौ ७१ सम्पदा ३१ च अव्ययपदम्।
अनु०-अभूततद्भावे, कृभ्वस्तियोगे, सम्पद्यकर्तरि, विभाषा, सातिरिति चानुवर्तते।
__ अन्वय:-कृभ्वस्तिभि: सम्पदा च योगे सम्पद्यकर्तरि प्रातिपदिकाद् अभूततद्भावे विभाषा सातिः, अभिविधौ।।
अर्थ:-कृभ्वस्तिभिः सम्पदा च योगे सम्पद्यकर्तरि च वर्तमानात् प्रातिपदिकाद् अभूततद्भावेऽर्थे विकल्पेन साति: प्रत्ययो भवति, अभिविधौ अभिव्याप्तौ गम्यमानायाम्। पक्षे च कृभ्वस्तिभिोगे च्वि: प्रत्ययो भवति, न च सम्पदा योगे।
उदा०-अनग्निरग्नि: सम्पद्यते तं करोति-अग्निसात् करोति, अग्निसाद् भवति, अग्निसात् स्यात्, अग्निसात् सम्पद्यते (साति:)। अनग्निरग्नि: सम्पद्यते तं करोति-अग्नी करोति । अनी भवति । अग्नी स्यात् (च्चि:)। अनुदकमुदकं सम्पद्यते तत् करोति-उदकसात् करोति, उदकसाद् भवति, उदकसात् स्यात्, उदकसात् सम्पद्यते (साति:)। अनुदकमुदकं सम्पद्यते तत् करोति-उदकी करोति, उदकी भवति, उदकी स्यात् (च्वि:)।
आर्यभाषा: अर्थ-(कृभ्वस्तियोगे) कृ, भू, अस्ति (च) और (सम्पदा) सम्पद के योग में (सम्पद्यकीर) 'सम्पद्यते' क्रिया के कर्ता रूप में विद्यमान प्रातिपदिक से (अभूततद्भावे) विकार रूप में अविद्यमान कारण का विकार रूप में विद्यमान होना अर्थ में (विभाषा) विकल्प से (साति:) साति प्रत्यय होता है (अभिविधौ) यदि वहां अभिव्याप्ति अर्थ की प्रतीति हो और पक्ष में कृ, भू, अस्ति के योग में च्वि' प्रत्यय होता है सम्पद' के योग में नहीं।
उदा०-जो अग्नि नहीं है वह अग्नि बनता है और जो उसे बनाता है-अग्निसात् बनाता है, अग्निसात् होता है, अग्निसात् होवे, अग्निसात् बनाता है (साति)। जो अग्नि नहीं है वह अग्नि बनता है और जो उसे बनाता है-आनी बनाता है, अग्नी होता है, अग्नी होवे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org