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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः (च्चि)। जो उदक जल नहीं है वह उदक बनता है और जो उसे बनाता है-उदकसात् बनाता है, उदकसात् होता है, उदकसात् होवे (साति)। जो उदक नहीं है वह उदक बनता है और जो उसे बनाता है-उदकी बनाता है, उदकी होता है, उदकी होवे (च्चि)।
सिद्धि-अग्निसात् करोति और अग्नी करोति आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है।
विशेष: अभिविधि-अभिव्याप्ति और कार्य सम्पूर्णता अर्थ में यह भेद है कि जहां एकंदेश रूप में भी सब प्रकृति विकारभाव को प्राप्त हो जाती है उसे अभिविधि कहते हैं। जैसे-इस सेना में उत्पात से सब शस्त्र अग्निसात् होगये, वर्षा में सब लवण उदकसात् होगया। यह अभिविधि वचन है। समस्त रूप से द्रव्य का विकारभाव को प्राप्त हो जाना कात्य॑ कहाता है। अग्निसाद् भवति शस्त्रम् । यह कात्य॑ वचन है।
अधीनार्थप्रत्ययविधिः सातिः
(१) तदधीनवचने।५४। प०वि०-तदधीन-वचने ७१।
स०-तस्य (स्वामिन:) अधीनम्-तदधीनम्, तदधीनस्य वचनम्तदधीनवचनम्, तस्मिन्-तदधीनवचने (षष्ठीतत्पुरुष:)।
अनु०-कृभ्वस्तियोगे, सम्पदा च इति चानुवर्तते। अभूततद्भावे, सम्पद्यकरि, इति च निवृत्तम् ।
अन्वय:-कृभ्वस्तिभि: सम्पदा च योगे स्वामिविशेषवाचिनस्तदधीनवचने सातिः।
अर्थ:-कृभ्वस्तिभि: सम्पदा च योगे स्वामिविशेषवाचिन: प्रातिपदिकात् तदधीनवचनेऽर्थे साति: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-राजाधीनं करोति-राजसात् करोति, राजसाद् भवति, राजसात् स्यात्, राजसात् सम्पद्यते। आचार्याधीनं करोति-आचार्यसात् करोति, आचार्यसाद् भवति, आचार्यसात् स्यात्, आचार्यसात् सम्पद्यते।
आर्यभाषा: अर्थ- (कृभ्वस्तियोगे) कृ, भू, अस्ति (च) और (सम्पदा) सम्पद के योग में स्वामिविशेषवाची प्रातिपदिक से (तदधीनवचने) उस स्वामिविशेष के अधीन आश्रित कथन अर्थ में (साति:) साति प्रत्यय होता है।
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