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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४११ साति-विकल्प:
(३) विभाषा साति कात्स्न्ये ।५२। प०वि०-विभाषा ११ साति ११ (सु-लुक्) कात्स्न्र्ये ७।१। अनु०-अभूततद्भावे, कृभ्वस्तियोगे, सम्पद्यकर्तरि इति चानुवर्तते।
अन्वय:-कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि प्रातिपदिकाद् अभूततद्भावे विभाषा साति:, कात्स्यें।
अर्थ:-कृभ्वस्तिभिर्योगे सम्पद्यकर्तरि च वर्तमानात् प्रातिपदिकाद् अभूततद्भावेऽर्थे विकल्पेन साति: प्रत्ययो भवति, कात्स्न्र्ये गम्यमाने। यदि प्रकृति: कृत्स्ना विकारात्मतामापद्यते इत्यर्थ: । पक्षे च च्चि: प्रत्ययो भवति।
उदा०-अनग्निरग्नि: सम्पद्यते, स भवति-अग्निसाद् भवति शस्त्रम् (साति:)। अग्नी भवति शस्त्रम् (च्वि:)। अनुदकमुदकं सम्पद्यते तद्भवति-उदकसाद् भवति लवणम् (साति:)। उदकी भवति लवणम् (च्चि:)।
आर्यभाषा: अर्थ-(कृभ्वस्तियोगे) कृ, भू, अस्ति के योग में और (सम्पद्यकीरे) 'सम्पद्यते' क्रिया के कर्ता रूप में विद्यमान प्रातिपदिक से (अभूततद्भावे) विकार रूप में अविद्यमान कारण का विकार रूप में विद्यमान होना अर्थ में (विभाषा) विकल्प से (साति:) साति प्रत्यय होता है (कात्स्न्ये) यदि वहां प्रकृति समस्त विकार स्वरूप को प्राप्त हो।
उदा०-जो अग्नि नहीं है, वह अग्नि बनता है, और वह समस्त भाव से अग्नि होता है-अग्निसात् होता है (साति)। अग्नी होता है (वि)। जो उदक जल नहीं है, वह जल बनता है और वह समस्त भाव से जल होता है-उदकसात् होता है। उदकी होता है।
सिद्धि-(१) अग्निसाद् भवति । अग्नि+सु+साति। अग्नि+सात् । अग्निसात्+सु। अग्निसात्+० । अग्निसात्। ___यहां कृ, भू. अस्ति के योग में तथा सम्पद्यते' क्रिया के कर्ता रूप में विद्यमान 'अग्नि' शब्द से अभूततद्भाव अर्थ में तथा कात्स्न्ये अर्थ की प्रतीति में इस सूत्र से साति' प्रत्यय है। 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (१।१।३७) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुप:' (२४।८२) से सु' का लुक् होता है। ऐसे ही-उदकसात् ।
(२) अग्नी भवति । यहां पूर्वोक्त 'अग्नि' शब्द से विकल्प पक्ष में च्वि' प्रत्यय करने पर च्वौ च' (७।४।२६) से अजन्त अंग को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
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