________________
४०५
पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः अनु०-अन्यतरस्याम् तसिरिति चानुवर्तते।
अन्वय:-अतिग्रहाव्यथनक्षेपेषु अकर्तरि कारके तृतीयाया: स्वार्थेऽन्यतरस्यां तसि:। ___अर्थ:-अतिग्रहाव्यथनक्षेपेष्वर्थेषु अकीर कारके च वर्तमानात् तृतीयान्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थ विकल्पेन तसि: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(अतिग्रह:) वृत्तेनातिगृह्यते-वृत्ततोऽतिगृह्यते देवदत्त: । चरित्रेणातिगृह्यते-चरित्रतोऽतिगृह्यते देवदत्त: । वृत्तेन चरित्रेण च गृह्यते इत्यर्थः। (अव्यथनम्) वृत्तेन न व्यथते-वृत्ततो न व्यथते यज्ञदत्तः । चरित्रेण न व्यथते-चरित्रतो न व्यथते यज्ञदत्त: । वृत्तेन चरित्रेण च न संचलतीत्यर्थ: । (क्षेप:) वृत्तेन क्षिप्त:-वृत्ततो क्षिप्तो ब्रह्मदत्त: । चरित्रेण क्षिप्त:-चरित्रेण क्षिप्तो ब्रह्मदत्त: ।
आर्यभाषा: अर्थ- (अतिग्रहाव्यथनक्षेपेषु) अतिग्रह अतिक्रमण, अव्यथन अचलन, क्षेप-निन्दा अर्थ में और (अकतरि) कर्ता से भिन्न कारक में विद्यमान (तृतीयायाः). तृतीयान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (तसि:) तसि प्रत्यय होता है।
उदा०-(अतिग्रह) देवदत्त वृत्त व्यवहार (लेन-देन आदि) से अतिगृहीत अतिक्रमण पूर्वक स्वीकृत किया जाता है-वृत्तत: अतिगृहीत किया जाता है। देवदत्त चरित्र-आचार से अतिग्रहीत किया जाता है-चरित्रत: अतिग्रहीत किया जाता है। (अव्यथन) यज्ञदत्त वृत्त से संचलित नहीं होता है-वृत्तत: संचलित नहीं होता है। यज्ञदत्त चरित्र से संचलित नहीं होता है-चरित्रत: संचलित नहीं होता है। (क्षेप) ब्रह्मदत्त वृत्त से क्षिप्त=निन्दित है-वृत्तत: निन्दित है। ब्रह्मदत्त चरित्र से निन्दित है-चरित्रत: निन्दित है।
सिद्धि-वृत्तत: । वृत्त+टा+तसि । वृत्त+तस् । वृत्ततस्+सु । वृत्ततस्+० । वृत्ततरु। वृत्ततर् । वृत्ततः।
यहां अतिग्रह, अव्यथन, क्षेप अर्थों में तथा अकर्ता कारक में विद्यमान तृतीयान्त वृत्त' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में तसि' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-चरित्रत:।
यहां कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से कर्ता कारक में नहीं अपितु करण करक में तृतीया विभक्ति है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org