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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-ग्रामाद् आगच्छति देवदत्त:-ग्रामात आगच्छति देवदत्तः । चौराद् बिभेति सोमदत्त:-चौरतो बिभेति सोमदत्त: । अध्ययनात् पराजयते यज्ञदत्त:-अध्ययनत: पराजयते यज्ञदत्त: । अहीयरुहोरिति किम् ? सार्थाद् हीयते देवदत्त: । पर्वताद् अवरोहति यज्ञदत्त:।
आर्यभाषा: अर्थ-(अहीयरुहो:) हीय और रुह् धातु के सम्बन्ध से रहित (अपादाने) अपादान कारक में विद्यमान (पञ्चम्या:) पञ्चम्यन्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (तसि:) तसि प्रत्यय होता है।
उदा०-देवदत्त ग्राम से आता है-ग्रामत: आता है। सोमदत्त चौर से डरता हैचौरत: डरता है। यज्ञदत्त अध्ययन से पराजित होता है-अध्ययनतः पराजित होता है।
सिद्धि-(१) ग्रामत: । ग्राम+डसि+तसि । ग्राम+तस् । ग्रामतस्+सु। ग्रामतस्+० । ग्रामतरु । ग्रामतर् । ग्रामत:।
यहां अपादान कारक में विद्यमान 'ग्राम' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में तसि' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। यहां 'ध्रुवमपायेऽपादानम् (१।४।२४) से अपादान कारक है।
(२) चौरत: । यहां भीत्रार्थानां भयहेतुः' (१।४।२५) से अपादान कारक है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अध्ययनत: । यहां पराजेरसोढः' (१।४।२६) से अपादान कारक है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
यहां 'अहीयरहो:' का कथन इसलिये किया गया है कि यहां तसि' प्रत्यय न हो-सार्थाद् हीयते देवदत्तः । देवदत्त अपने सार्थ (टोळी) से बिछुड़ता है। पर्वताद् अवरोहति यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त पर्वत से उतरता है। यहां हीय' और 'रह' धातु के सम्बन्ध में तसि' प्रत्यय न हो। तसिः(४०) अतिग्रहाव्यथनक्षेपेष्वकर्तरि तृतीयायाः।४६।
प०वि०- अतिग्रह-अव्यथन-क्षेपेषु ७१ अकर्तरि ७१ तृतीयाया: ५।१।
स०-अतिग्रहश्च अव्यथनं च क्षेपश्च ते-अतिग्रहाव्यथनक्षेपाः, तेषुअतिग्रहाव्यथनक्षेपेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अतिक्रम्य ग्रह:=अतिग्रहः । अव्यथनम् अचलनम्। क्षेप: निन्दा। न कर्ता-अकर्ता, तस्मिन्-अकर्तरि बिनाएमाा.)!
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