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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३८६ उदा०-मोदका: प्रकृता:-मौदकिकं भोजनम् (ठक्)। मोदकमयं भोजनम् (मयट)। शष्कुल्य: प्रकृता:-शाष्कुलिकम् (ठक्) । शष्कुलीमयम्
मयट)।
आर्यभाषा: अर्थ-(प्रकृतवचने) प्रधानता कथन अर्थ में तथा (बहुषु) बहुवचन में विद्यमान (तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से स्वार्थ में (समूहवत्) समूह अर्थ के समान (च) और (मयट्) मयट् प्रत्यय होते हैं।
उदाo-जहां मोदक=लड्डू प्रकृत-प्रधान हैं वह-मौदकिक भोजन (ठक्)। मोदकमय भोजन (मयट्)। जहां शष्कुली-पूरी/कचोरी प्रकृत-प्रधान हैं वह-शाष्कुलिक भोजन (ठक्)। शष्कुलीमय भोजन (मयट्)।
सिद्धि-(१) मौदकिकम् । मोदक+जस् ठक् । मौदक्+इक। मौदकिक+सु। मौदकिकम्।
यहां प्रकृतवचन तथा बहुवयन में विद्यमान, प्रथमा-समर्थ मोदक' शब्द से स्वार्थ में अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' (४।२।४७) से समूहवत् ठक्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३।५०) से 'द' के स्थान में 'इक्' आदेश किति च' (७।२।११८) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-शाष्कुलिकम् ।
(२) मोदकमयम् । यहां प्रकृत वचन तथा बहुवचन में विद्यमान पूर्वोक्त मोदक' शब्द से मयट् प्रत्यय है। ऐसे ही-शष्कुलीमयम् । ज्य:
(१७) अनन्तावसथभेषजाञ् ञ्यः ।२३। प०वि०-अनन्त-आवसथ-भेषजात् ५।१ व्य: १।१।
स०-अनन्तश्च आवसथश्च भेषजं च एतेषां समाहार:अनन्तावसथभेषजम्, तस्मात्-अनन्तावसथभेषजात् (समाहारद्वन्द्वः)।
अन्वय:-अनन्तावसथभेषजात् स्वार्थे ज्य:। . अर्थ:-अनन्तावसथभेषजेभ्य: प्रातिपदिकेभ्य: स्वार्थे ज्य: प्रत्ययो भवति।
उदा०-(अनन्त:) अनन्त एव-आनन्त्यम्। (आवसथ:) आवसथ एव-आवसथ्यम्। (भेषजम्) भेषजमेव-भैषज्यम्।
आर्यभाषा अर्थ-(अनन्तावसथभेषजात्) अनन्त, आवसथ, भेषज प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (ज्य:) ज्य प्रत्यय होता है।
उदा०-(अनन्तः) अनन्त ही-आनन्त्य। (आवसथ:) आवसथ गृह ही-आवसथ्य। (भेषजम्) भेषज औषध ही- भैषज्य।
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