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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३८७ सिद्धि-सकृत् । एक+अम्+सुच् । सकृत्+स् । सकृत्+० । सकृत्+सु । सकृत्+० । सकृत्।
यहां क्रिया की गणना अर्थ में विद्यमान, संख्यावाची 'एक' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'सुच्' प्रत्यय और 'एक' के स्थान में सकृत्' आदेश है। संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से संयोगान्त सुच्’ के सकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
धा
(१४) विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले।२०।
प०वि०-विभाषा ११ बहो: ५१ धा १।१ (सु-लुक्) अविप्रकृष्टकाले ७१।
___ स०-विप्रकृष्ट: दूरम्। न विप्रकृष्ट:-अविप्रकृष्ट:, अविप्रकृष्ट: कालो यस्य तत्-अविप्रकृष्टकालम्, तस्मिन्-अविप्रकृष्टकाले (नगर्भितबहुव्रीहि:)।
अनु०-संख्याया:, क्रियाभ्यावृत्तिगणने इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अविप्रकृष्टकाले क्रियाभ्यावृत्तिगणने संख्याया बहोर्विभाषा धाः। ___अर्थ:-अविप्रकृष्टकालविषयके क्रियाभ्यावृत्तिगणनेऽर्थे वर्तमानात् संख्यावाचिनो बहु-शब्दात् प्रातिपदिकाद् विकल्पेन स्वार्थे धा: प्रत्ययो भवति, पक्षे च कृत्वसुच् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-बहून् वारान् दिवसस्य भुते-बहुधा दिवसस्य भुङ्क्ते देवदत्त: (धा:)। बहुकृत्वो दिवसस्य भुङ्क्ते देवदत्त: (कृत्वसुच्) ।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(अविप्रकृष्टकाले)-अविप्रकृष्ट निकटकालविषयक (क्रियाभ्यावृत्तिगणने) क्रिया की पुनरावृत्ति की गणना अर्थ में विद्यमान (संख्यायाः) संख्यावाची (बहो:) बहु प्रातिपदिक से (विभाषा) विकल्प से स्वार्थ में (धा:) धा प्रत्यय होता है। पक्ष में कृत्वसुच् प्रत्यय होता है।
उदा०-दिन में बहुत बार खाता है-देवदत्त दिन में बहुधा खाता है (धा)। देवदत्त दिन में बहुकृत्व: खाता है (कृत्वसुच्) ।
सिद्धि-(१) बहुधा । बहु+शस्+धा । बहु+धा। बहुधा+सु । बहुधा+० । बहुधा।
यहां अविप्रकृष्टकालविषयक, क्रिया-अभ्यावृत्ति की गणना अर्थ में विद्यमान, संख्यावाची बहु' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'धा' प्रत्यय है। तद्धितश्चासर्वविभक्तिः ' (१।१ ।३८) से अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः' (२।४।८२) से 'सु' का लुक् होता है।
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