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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(क्रियाभ्यावृतिगणने) क्रिया की अभ्यावृत्ति पुनरावृत्ति की गणना अर्थ में विद्यमान (द्वित्रिचतुर्थ्य:) द्वि, त्रि, चतुर् प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (सुच्) सुच् प्रत्यय होता है।
उदा०-(द्वि:) दो बार खाता है-देवदत्त द्विः खाता है। (त्रि.) तीन बार खाता है-यज्ञदत्त त्रि: खाता है। (चतुर) चार बार खाता है-ब्रह्मदत्त चतु: खाता है।
सिद्धि-(१) द्वि: । द्वि+औट्+सुच् । द्वि+स् । द्विस्+सु। द्विस्+० । द्विरु। द्विर्। द्विः।
यहां क्रियाभ्यावृत्ति की गणना अर्थ में विद्यमान संख्यावाची द्वि' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में सुच्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-द्विः, त्रिः ।
(२) चतुः । चतुर्+शस्+सुच्। चतुर्+स्। चतुर्+० । चतुर्+सु। चतुर्+० ।
चतुः।
यहां 'रात्सस्य' (८।२।२४) से सुच्’ के सकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। प्रत्यय के चित्' होने से चित:' (६।१।१६०) से अन्तोदात्त स्वर होता है-चतुः। सुच
(१३) एकस्य सकृच्च ।१६। प०वि०-एकस्य ६१ सकृत् ११ च अव्ययपदम् ।
अनु०-संख्याया:, क्रियागणने, सुच् इति चानुवर्तते । अभ्यावृत्तिश्चात्र न सम्बध्यतेऽर्थासम्भवात्।।
अन्वय:-क्रियागणने संख्याया एकात् सुच्, सकृच्च ।
अर्थ:-क्रियागणनेऽर्थे वर्तमानात् संख्यावाचिन एक-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे सुच् प्रत्ययो भवति, एकस्य स्थाने च सकृत्-आदेशो भवति।
उदा०-एकं वारं भुङ्क्ते-सकृद् भुङ्क्ते देवदत्त: । एकं वारमधीतेसकृद् अधीते यज्ञदत्त: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(क्रियागणने) क्रिया की गणना अर्थ में विद्यमान (एकस्य) एक प्रातिपदिक से स्वार्थ में (सुच्) सुच् प्रत्यय हो और एक के स्थान में (सकृत्) सकृत् आदेश (च) भी होता है।
उदा०-एक बार खाता है-देवदत्त सकृत् खाता है। एक बार पढ़ता है-यज्ञदत्त सकृत् पढ़ता है।
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