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________________ ३८२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) प्रतरम् । प्र+सु+तरप्। प्र+तर। प्रतर+अमु। प्रत+अम्। प्रतरम्+सु। प्रतरम्+0। प्रतरम्। यहां अव्ययसंज्ञक 'प्र' शब्द से पूर्ववत् घ-संज्ञक तरप्' प्रत्यय है। तरप्-प्रत्ययान्त प्रतर' शब्द से छन्द विषय में इस सूत्र से 'अमु' प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (२) प्रतराम् । यहां पूर्वोक्त प्रतर' शब्द से इस सूत्र से छन्द विषय में 'आमु' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ठक् (७) अनुगादिनष्टक् ।१३। प०वि०-अनुगादिन: ५।१ ठक् १।१ । अन्वय:-अनुगादिन: प्रातिपदिकाट्ठक् । अर्थ:-अनुगादिन्-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे ठक् प्रत्ययो भवति । उदा०-अनुगदतीति अनुगादी। अनुगादी एव-आनुगादिकः । आर्यभाषा: अर्थ-(अनुगादिनः) अनुगादिन् प्रातिपदिक से स्वार्थ में (ठक्) ठक् प्रत्यय होता है। उदा०-अनुगादी पीछे बोलनेवाला ही-आनुगादिक। सिद्धि-आनुगादिकः । अनुगादिन्+सु+ठक् । आगाद्+इक। आनुगादिक+सु । आनुगादिकः। यहां 'अनुगादिन्' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में ठक्’ प्रत्यय है। ठस्येक:' (७।३।५०) से ह' के स्थान में 'इक्’ आदेश और नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (इन्) का लोप होता है। अञ् (८) णचः स्त्रियामञ्।१४। प०वि०-णच: ५ ।१ स्त्रियाम् ७१ अञ् १।१। अन्वय:-स्त्रियां णचोऽञ्। अर्थ:-स्त्रियां विषये णच:='कर्मव्यतिहारे णच् स्त्रियाम्' (३।३।४३) इति यो णच् प्रत्ययो विहितस्तदन्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थेऽञ् प्रत्ययो भवति। उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते । व्यावहासी वर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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