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पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३८३ आर्यभाषा: अर्थ-(स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग विषय में (णच:) कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम्' (३।३।४३) से जो णच् प्रत्यय विहित है, तदन्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अञ्) अञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते। परस्पर आहान चल रहा है। व्यावहासी वर्तते। परस्पर हास्य चल रहा है।
सिद्धि-(१) व्यवक्रोशी। वि+अव+कुश्+णच् । वि+अव+कोश्+अ। व्यावक्रोश+ सु+अञ् । व्यावक्रोश्+अ । व्यावक्रोश+डीप् । व्यावक्रोशी+सु । व्यावक्रोशी।
यहां वि, अव उपसर्गपूर्वक क्रुश आहाने' (भ्वा०प०) धातु से कर्मव्यतिहारे णच् स्त्रियाम्' (३३।४३) से 'णच्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् स्त्रीलिङ्ग विषय में णजन्त 'व्यवक्रोश' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में अञ्' प्रत्यय है। 'न कर्मव्यतिहारे' (७।३।६) से ऐच्-आगम का प्रतिषेध होकर तद्धितेष्वचामादे: (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय होता है।
(२) व्यावहासी। हस हसने (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ।
अण्
(६) अणिनुणः ।१५। प०वि०-अण् १।१ इनुण: ५।१ । अन्वय:-इनुण: प्रातिपदिकाद् अण् ।
अर्थ:-इनुण:='अभिविधौ भाव इनुण्' (३।३।४४) इति य इनुण प्रत्ययो विहितस्तदन्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे इनुण प्रत्ययो भवति ।
उदा०-साराविणं वर्तते । सांकूटिनं वर्तते।।
आर्यभाषा: अर्थ-(इनुण:) 'अभिविधौ भाव इनुण्' (३।३।४४) से जो 'इनुण्’ प्रत्यय विहित है, तदन्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में (अण्) अण् प्रत्यय होता है।
उदा०-सांराविणं वर्तते । सब ओर शोर हो रहा है। सांकूटिनं वर्तते । सब ओर दहन हो रहा है (आग लगी हुई है)।
सिद्धि-(१) सांराविणम् । सम्+रु+इनुण् । सम्+रौ+इन् । संराविन्+अण्। सांराविन्+अ। सांराविण+सु । सांराविणम् ।
यहां प्रथम सम्' उपसर्गपूर्वक र शब्दे' (अदा०प०) धातु से 'अभिविधौ भाव इनुण' (३।३।४४) से इनुण् प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् इनुण्-प्रत्ययान्त संराविण' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'अण्' प्रत्यय है। तद्धितेव्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग
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