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________________ ३७८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) अर्वाक् । यहां अवर पूर्वक 'अञ्चु गतौ (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् क्विन्' प्रत्यय है। 'पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६।३।१०९) से अवर को 'अर्व' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (४) अर्वाचीनम् । यहां अवर पूर्वक 'अञ्चु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् क्विन्' प्रत्यय और तत्पश्चात् 'अवर+अच्' शब्द से इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय होता है। 'अवर' शब्द को पूर्ववत् 'अर्व' आदेश होता है। शेष कार्य प्राचीन' के समान है। (३) जात्यन्ताच्छ बन्धुनि।६। प०वि०-जाति-अन्तात् ५।१ छ ११ (सु-लुक्) बन्धुनि ७१। सo-जतिरन्ते यस्य तत्-जात्यन्तम्, तस्मात्-जात्यन्तात् (बहुव्रीहिः) । अन्वय:-बन्धुनि जात्यन्ताच् छः । अर्थ:-बन्धुनि अर्थे वर्तमानाज् जात्यन्तात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे छ: प्रत्ययो भवति। बध्यतेऽस्मिजातिरिति बन्धु । येन ब्राह्मणत्वादिजातिय॑ज्यते तद् बन्धु द्रव्यम् (व्यक्ति:) उच्यते। उदा०-ब्राह्मणजातिरेव-ब्राह्मणजातीय: । क्षत्रियजातीयः। वैश्यजातीयः। पशुजातीयः। आर्यभाषा: अर्थ-(बन्धुनि) द्रव्य-व्यक्ति अर्थ में विद्यमान (जात्यन्तात्) जाति शब्द जिसके अन्त में है उस प्रातिपदिक से स्वार्थ में (छ:) छ प्रत्यय होता है। उदा०-ब्राह्मणजाति ही-ब्राह्मणजातीय (ब्राह्मण)। क्षत्रियजाति ही-क्षत्रियजातीय (क्षत्रिय)। वैश्यजाति ही-वैश्यजातीय (वैश्य)। पशुजाति ही-पशुजातीय (पशु)। सिद्धि-ब्राह्मणजातीयः । यहां बन्धु (व्यक्ति) अथ श में विद्यमान जात्यन्त ब्राह्मणजाति शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में छ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के इकार का लोप होता है। ऐसे ही-क्षत्रियजातीय: आदि। छ-विकल्प:(४) स्थानान्ताद् विभाषा सस्थानेनेति चेत्।१०। प०वि०-स्थान-अन्तात् ५।१ विभाषा ११ सस्थानेन ३१ इति अव्ययपदम्, चेत् अव्ययपदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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