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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अषडक्ष०अध्युत्तरपदम्, तस्मात्-अषडक्ष०अध्युत्तरपदात् (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्व:)।
अन्वय:-अषडक्ष०अध्युत्तरपदात् स्वार्थे खः ।
अर्थ:-अषडक्ष-आशितगु-अलङ्कर्म-अलम्पुरुषेभ्योऽध्युत्तरपदेभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्य: स्वार्थे ख: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(अषडक्ष:) अविद्यमानानि षडक्षीणि यस्मिन् स:-अषडक्ष: । अषडक्ष एव-अषडक्षीणो मन्त्र: । यो द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां क्रियते, न बहुभिः । (आशितगुः) आशिता गावो यस्मिंस्तत्-आशितङ्गवीनमरण्यम् । (अलङ्कर्मा) अलङ्कर्मणे-अलङ्कर्मीण: । (अलम्पुरुषः) अलम्पुरुषायअलम्पुरुषीणः। (अध्युत्तरपदम्) राजनि अधि-राजाधीनम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अषडमअध्युत्तरपदात्) अषडक्ष, आशितगु, अलङ्कमन्, अलम्पुरुष तथा अधि-उत्तरपदवाले प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (ख:) ख प्रत्यय होता है।
उदा०-(अषडक्ष) जहां छ: आंख विद्यमान नहीं है वह अषडक्ष, अषडक्ष ही-अषडक्षीण मन्त्र। दो पुरुषों के द्वारा किया गया गुप्त विचार। (आशितगु) जिसमें गौवें सब घास को चर चुकी हैं वह-आशितगु, आशितड्गु ही-आशितड्गवीन अरण्य (जंगल)। (अलकर्मा) कर्म करने के लिये जो समर्थ है वह-अलङ्कर्मा, अलका ही-अलकर्मीण। (अलम्पुरुष) जो पुरुष प्रति संघर्ष के लिये पर्याप्त है वह-अलम्पुरुष, अलम्पुरुष ही-अलम्पुरुषीण। (अध्युत्तरपद) जो राजा के अधिकार में है वह-राजाधि, राजाधि ही-राजाधीन। .
सिद्धि-(१) अषडक्षीणः । अषडक्ष+सु+ख। अषडक्ष्+ईन। अषडक्षीण+सु । अषडक्षीणः।
यहां 'अषडक्ष' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७/१२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश, 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप और 'अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व होता है।
(२) आशितङ्गवीनम् । यहां 'आशिता ' शब्द से 'ख' प्रत्यय करने पर 'ओर्गुणः' (६ ।४।१४६) से अंग को गुण होता है और निपातन से पूर्वपद को 'मुम्' आगम होता है।
(३) अलकर्मीण: । यहां 'अलकर्मन्' शब्द से 'ख' प्रत्यय करने पर 'नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से अंग के टि-भाग (अन्) का लोप होता है और पूर्ववत् णत्व होता है। 'अलकर्मा' शब्द में वा०- 'पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या' (२।२।१८) से प्रादि समास है।
(४) अलम्पुरुषीणः। यहां 'अलम्पुरुष' शब्द से 'ख' प्रत्यय करने पर पूर्ववत् णत्व होता है।
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