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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सo - आयुधजीविनां सङ्घ इति आयुधजीविसङ्घः तस्मात् - आयुधजीविसङ्घात् (षष्ठीतत्पुरुषः) । ब्राह्मणश्च राजन्यश्च एतयोः समाहारो ब्राह्मणराजन्यम्, न ब्राह्मणराजन्यम्- अब्राह्मणराजन्यम्, तस्मात्- अब्राह्मणराजन्यात् (समाहारद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः ) ।
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अन्वयः-वाहीकेष्वब्राह्मणराजन्याद् आयुधजीविसङ्घाद् ञ्यट् ।
अर्थ:- वाहीकेषु वर्तमानाद् ब्राह्मणराजन्यवर्जिताद् आयुधसङ्घवाचिनः प्रातिपदिकात् स्वार्थे व्यट् प्रत्ययो भवति ।
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उदा० - कौण्डीबृस एव - कौण्डीबृस्य:, कौण्डीबृस्यौ, कौण्डीबृसाः । क्षुद्रक एव क्षौद्रक्य:, क्षौद्रक्यौ, क्षुद्रकाः । मालव एव - मालव्य:, मालव्यौ, मालवा: । स्त्री चेत्- कौण्डीबृसी । क्षौद्रकी । मालवी ।
आर्यभाषा: अर्थ - (वाहीकेषु) वाहीक देश में रहनेवाले (अब्राह्मणराजन्यात्) ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण से रहित (आयुधजीविसङ्घात्) शस्त्रजीवी संघवाची प्रातिपदिक से स्वार्थ में (ञ्यट्) ञ्यट् प्रत्यय होता है।
उदा०o - कौण्डीबृस ही - कौण्डीबृस्य । क्षुद्रक ही क्षौद्रक्य । मालव ही - मालव्य । यहां बहुवचन में यट्' प्रत्यय का पूर्ववत् लुक् हो जाता है - बहुत कौण्डीबृस ही- कौण्डीबृस । बहुत क्षुद्रक ही क्षुद्रक | बहुत मालव ही मालव । यदि स्त्री हो तो - कौण्डीबसी । क्षौद्रकी । मालवी ।
सिद्धि- कौण्डीबृस्यः । कौण्डीबृस + सु + ञ्यट् | कौण्डीबृस्+य | कौण्डीबृस्य+सु | कौण्डीबृस्यः ।
यहां वाहीक देशनिवासी ब्राह्मण और राजन्य = क्षत्रिय वर्ण से भिन्न आयुजीवी संघवाची 'कौण्डीबूस' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में व्यट्' प्रत्यय है । 'तद्धितेष्वचामादेः' (७/२/११७ ) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६ । ४ । १४८) से अंग के अकार का लोप होता है। प्रत्यय के टित होने से स्त्रीत्व - विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्०' (४/१/१५) से ङीप् प्रत्यय होता है - कौण्डीबृसी । 'हलस्तद्धितस्य' (६ । ४ ।१५०) से कार का लोप हो जाता है। ऐसे ही - क्षौद्रक्य: मालव्य: । यदि स्त्री हो तो - क्षौद्रकी, मालवी ।
विशेषः वाहीक-सिन्धु से शतद्रु तक का प्रदेश वाहीक था जिसके अन्तर्गत मद्र, उशीनर और त्रिगर्त ये मुख्य भाग थे। पांच नदियोंवाला 'पंजाब' प्रदेश |
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