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पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः उदा०-(व्रात:) कपोतपाक एव-कापोतपाक्य:, कापोतपाक्यौ, कपोतपाका: । व्रीहिमत एव-हिमत्य:, त्रैहिमत्यौ, व्रीहिमता: । (फान्तम्) कौञ्जायन एव-कौञ्जायन्य:, कौञ्जायन्यौ, कौञ्जायनाः। ब्रानायन एव-ब्राध्नायन्य:, ब्राध्नायन्यौ, ब्रानायना: ।
अस्त्रियामिति किम्-कपोतकी । व्रीहिमती। कौञ्जायनी । ब्राध्नायनी।
आर्यभाषा: अर्थ-(वातच्फो:) व्रातवाची और फञ्प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (ज्य:) ज्य प्रत्यय होता है (अस्त्रियाम) यदि वहां स्त्री अर्थ अभिधेय न हो।
नाना जातिवाले, अनिश्चित जीविकावाले, उत्सेधजीवी शस्त्र से प्राणियों को मारकर जीवन-निर्वाह करनेवाले संघ 'वात' कहाते हैं।
उदा०-(व्रात) कपोतपाक ही-कापोतपाक्य। व्रीहिमत ही-रैहिमत्य। यहां इस तद्राजसंज्ञक व्य' प्रत्यय का बहुवचन में पूर्ववत् लुक् हो जाता है-बहुत कपोतपाक ही-कपोतपाक। बहुत व्रीहिमत ही-व्रीहिमत । कपोतपाक-कबूतर पकानेवाले। व्रीहिमत-जंगली चावलों को ही बहुत माननेवाले। (फञन्त) कौजायन ही-कौज्जायन्य। ब्राध्नायन ही-ब्राध्नायन्य। यहां बहुवचन में व्य' प्रत्यय का पूर्ववत् लुक् हो जाता है-बहुत कौञ्जायन ही-कौजायन। बहुत ब्राध्नायन ही-बध्नायन। स्त्रीलिङ्ग में 'ज्य' प्रत्यय नहीं होता है-कपोतपाकी, व्रीहिमती, कौञ्जायनी, ब्रानायनी।
सिद्धि-(१) कापोतपाक्य: । कपोतपाक+सु+ज्य । कापोतपाक्य । कापोतपाक्य+सु। कापोतपाक्यः ।
यहां वातवाची कपोतपाक' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में व्य' प्रत्यय है। पूर्ववत् आदिवृद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-हिमत्यः।
(२) कौञ्जायन्यः। कौजायन+सु+ज्य। कौज्जयन्+य। कौजायन्य+सु । कौञ्जायन्यः। ___यहां प्रथम कुञ्ज' शब्द से गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्मञ्' (४।१।९८) से गोत्रापत्य अर्थ में 'च्फञ्' प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् च्फञ्-प्रत्ययान्त कौज्जायन' शब्द से इस सूत्र से स्वार्थ में ज्य' प्रत्यय होता है। पूर्ववत् आदिवृद्धि (पर्जन्यवत्) और अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-ब्राभायन्यः ।
ज्यट
(३) आयुधजीविसङ्घायड्वाहीकेष्व
ब्राह्मणराजन्यात्।११४। प०वि०-आयुधजीवि-सङ्घात् ५।१ ज्यट् १।१ वाहीकेषु ७१३ अब्राह्मणराजन्यात् ५।१।
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