________________
३४५
पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः अन्वय:-तनुत्वे वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्य: ष्टरच् ।
अर्थ:-तनुत्वे=अल्पत्वेऽर्थे वर्तमानेभ्यो वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्य: प्रातिपदिकेभ्य: ष्टरच् प्रत्ययो भवति।
उदा०-(वत्स:) तनुर्वत्स:-वत्सतरः। (उक्षा) तनुरुक्षा-उक्षतरः । (अश्व:) तनुरश्व:-अश्वतरः। (ऋषभः) तनुर्ऋषभ:-ऋषभतरः।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(तनुत्वे) अल्पता अर्थ में विद्यमान (वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्य:) वत्स, उक्षा, अश्व, ऋषभ प्रातिपदिकों से (ष्टरच्) ष्टरच् प्रत्यय होता है। जिस गुण से शब्द का प्रयोग हो रहा है उसके तनुत्व अल्पता (कमी) अर्थ में यह प्रत्ययविधि होती है।
उदा०-(वत्स) तनु वत्स-वत्सतर (बछड़ा)। जिसकी प्रथम आयु तनु-अल्प शेष है और जो द्वितीय आय को प्राप्त होगया है। (उक्षा) तन उक्षा-उक्षतर। जिसकी द्वितीय (जवानी) अल्प शेष है और जो तृतीय आयु को प्राप्त होगया है। ढलती जवानीवाला बैल। (अश्व) तनु अश्व-अश्वतर (खच्चर)। जिसमें अश्वभाव अल्प है अर्थात् अश्व से गर्दभी में अथवा गर्दभ से वडवा में उत्पन्न हुआ। (ऋषभ) तनु ऋषभ ऋषभतर। मन्दशक्तिवाला सांड।
सिद्धि-वत्सतरः । वत्स+सु+ष्टरच् । वत्स+तर । वत्सतर+सु। वत्सतरः।
यहां तनुत्व अल्पता अर्थ में विद्यमान वत्स' शब्द से इस सूत्र से ष्टरच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-उक्षतरः, अश्वतर:, ऋषभतरः।
निर्धारणार्थप्रत्ययप्रकरणम् डतरच(१) किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच् ।६२।
प०वि०-किम्-यत्-तद: ५ ।१ निर्धारणे ७१ द्वयो: ६।२ एकस्य ६।१ डतरच् १।१।
स०-किं च यच्च तच्च एतेषां समाहार: किंयत्तत्, तस्मात्-कियत्तदः (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-द्वयोरेकस्य निर्धारणे किंयत्तद्भ्यो डतरच् ।
अर्थ:-द्वयोरेकस्य निर्धारणेऽर्थे वर्तमानेभ्य: किंयत्तद्भ्य: प्रातिपदिकेभ्यो डतरच् प्रत्ययो भवति। जात्या, क्रियया, गुणेन संज्ञया समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणं निर्धारणमित्युच्यते।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org